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योग और आचार
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इसी प्रकार आ० हेमचन्द्र ने भी सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप त्रिविध साधना मार्ग का ही चित्रण किया है। उन्होंने 'योगशास्त्र' की रचना राजा कुमारपाल के निमित्त की थी। इसलिए उनका यह ग्रन्थ लोकधर्म की भूमिका पर रचा गया है। यही इस ग्रन्थ की सर्वोपरि विशेषता है।।
उपा० यशोविजय ने भी अपने योग-ग्रन्थों में आ० हरिभद्र सम्मत योगमार्ग एवं सर्वग्राह्य आचार को ही पल्लवित-पुष्पित किया। पूर्वपृष्ठों में इन विषयों का विशद विवेचन किया जा चुका है। ___ प्रस्तुत अध्याय में उन आचारों का विवेचन करेंगे जिनकी पृष्ठभूमि में आ० शुभचन्द्र और आ० हेमचन्द्र ने अपने योग-ग्रन्थों की रचना की है। वे हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय।
क. सम्यग्दर्शन अर्थ : 'दर्शन' शब्द प्रायः 'दृष्टि' के अर्थ में अथवा तत्त्वज्ञान और उसके साधनों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस दृष्टि से 'सम्यग्दर्शन' शब्द कई बार सम्यक् तत्त्वज्ञान का पर्यायवाची प्रतीत होता है। किन्तु यहाँ यह इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन' पद पारिभाषिक होकर एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त है, जिसके अनुसार जीव, अजीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है। जैन आगमों में परिभाषित 'सम्यग्दर्शन' का यही अर्थ आ० हरिभद्र, आ०शुभचन्द्र,५ आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय" आदि ने भी स्वीकार किया है। दिगम्बर-परम्परा के कुछ ग्रन्थों में 'आगम' या 'शास्त्र' पर होने वाली श्रद्धा को 'सम्यग्दर्शन' कहा गया है। शास्त्रों का उपदेशक गुरु होता है, इसलिए श्वेताम्बर-परम्परा के सभी ग्रन्थों में गुरु पर श्रद्धा रखना भी "सम्यग्दर्शन' का लक्षण माना गया है। आ० हेमचन्द्र के अनुसार सच्चे देव को देव समझना, सच्चे गुरु को गुरु समझना और सच्चे धर्म में धर्म-बुद्धि रखना 'सम्यक्त्व' है ।१०।
पातञ्जलयोगसत्र के व्यासभाष्य में भी 'सम्यग्दर्शन' शब्द का उल्लेख हआ है। वहाँ कहा गया है कि अनादि दुःख रूप प्रवाह से प्रेरित योगी आत्मा और भूतसमूह को देखकर समस्त दुःखों के क्षय के कारणभूत 'सम्यग्दर्शन' की शरण में जाता है अर्थात् दुःखनिवृत्ति का कारण मानकर उसे स्वीकार करता है। यहीं उसे संसार के हान का, उससे मुक्ति पाने का उपाय भी कहा गया है।" जैनदर्शन में प्ररूपित
१. चतर्वर्गेऽग्रणीर्णोक्षो. योगस्तस्य च कारणम ।
ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रय च सः ।। - योगशास्त्र.१/१५ श्रीचौलुक्य-कुमारपाल-नृपतेरत्यर्थमभ्यर्थनाद। आचार्येण निवेशिता पथि गिरा श्रीहेमचन्द्रेण सा।। - वही, २/५५ उत्तराध्ययनसूत्र, २८/१०: तत्त्वार्थसूत्र, १/२: वसुनन्दिश्रावकाचार, १०: पंचास्तिकाय, १०७: प्रशमरतिप्रकरण, २२२, दर्शनप्राभृत, १६: सर्वार्थसिद्धि,१३; पंचसंग्रह,१/१५६: पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २२ योगशतक, ३: श्रावकप्रज्ञप्ति, ६२ ज्ञानार्णव. ६/४(१). ५, ६(२) योगशास्त्र.१/७ अध्यात्मसार, ४/१२/६ वसुनन्दिश्रावकाचार.६: रत्नकरण्डश्रावकाचार, १/४ अगितगतिश्रावकाचार, १४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३१७ (क) या देवे देवताबुद्धिर्गुरो च गुरुतामतिः।
धर्गे च धर्मधीः शुद्धा, सभ्यक्त्वमिदमुच्यते।। - योगशास्त्र, २/२ (ख) यद्यपि रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेष्विति यतिश्रावकाणां साधारण सम्यकत्त्वलक्षणमुक्तम्। तथापि गृहस्थानां देवगुरुधर्मेषु पूज्यत्वोपास्यत्वानुष्ठेयत्वलक्षणोपयोगवशाद्देवगुरुधर्मतत्त्वप्रतिपत्तिलक्षणं सम्यक्त्वं पुनरभिहितम्।
- योगशास्त्र, स्वोपज्ञ वृत्ति. २/२ ११. तदेवगनादिना दुःखस्रोतसा व्यूह्यमानमात्मानं भूतग्राम च दृष्ट्वा योगी सर्वदुःखक्षयकारणं सम्यग्दर्शनं शरणं प्रपद्यत इति..
हानोपाय: सभ्यग्दर्शनम्। - व्यासभाष्य, पृ० २१५.२१८
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