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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
स्थायीभाव के नाम से स्मरण किया जाता है, और उनका आस्वादन रस' के नाम से स्वीकार किया जाता है।ये 'स्थायीभाव' अन्य भावों की अपेक्षा भले ही चिरस्थायी हों, किन्तु श्रद्धा अथवा भक्ति ऐसा मनोभाव है, जो एक बार उत्पन्न होने के बाद अपने आश्रय के प्रति कुछ काल विशेष में ही न रहकर, सुदीर्घकाल तक स्थिर रहता है, और कभी-कभी तो आजीवन प्रभावशाली बने रहते हुए अन्य सभी भावों को तिरस्कृत किए रहता है। वैष्णव संतों की परम्परा में रामानुज, रामानन्द, वल्लभ, मध्व, निम्बार्क और चैतन्य ऐसे सन्त हैं, जिनके मानस में एक बार भक्ति का उदय हुआ तो वे उसमें ही लीन हो गए और उनकी शिष्य-परम्परा में मीरा, रविदास, मलूकदास आदि सन्त भी उस श्रद्धा-भक्ति में निरन्तर सराबोर रहे। जैन-परम्परा में भी धर्म के प्रति अत्यन्त प्रगाढ श्रद्धा किसी भी साधु अथवा गृहस्थ में देखी जा सकती
है।
इस श्रंद्धा और भक्ति का उदय यद्यपि किसी भी परिस्थिति में हो सकता है. तथापि इसके उदय और परिपोष में सत्संगति, गुरूपदेश और स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा करता है। किसी भी साधक के जीवन में श्रद्धा का बीज होने पर, उसका परिपोष धीरे-धीरे होता है। किन्तु जब वह श्रद्धा पूर्वोक्त तत्त्वादि के प्रति परिपुष्ट होती हुई सुस्थिर हो जाती है, तब साधक के जीवन में कुछ चिह्न प्रकट होते हैं, जिन्हें जैन-परम्परा में सम्यग्दर्शन के लक्षण के नाम से स्मरण किया गया है। ये लक्षण हैं - १. प्रशम २. संवेग. ३. निर्वेद ४. अनुकम्पा और ५. आस्तिक्य ।। __आ० शुभचन्द्र प्रभृति कुछ जैनाचार्यों ने निर्वेद को संवेग का पर्यायवाची मानकर पृथक रूप से चर्चा नहीं की, इसलिए उन्होंने चार लक्षणों का ही उल्लेख किया है।
यह स्वाभाविक भी है कि मानव के हृदय में तत्त्वों अथवा गुरु आदि के प्रति श्रद्धा परिपक्व होने पर, उसके हृदय में स्थित करता आदि कषाय शान्त होने लगें, संसार के प्रति राग दूर होकर वैराग्य पृष्ट होने लगे, प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा जीवन में परिलक्षित होने लगे और मोक्ष-प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा मानस में विद्यमान हो। इन चिह्नों में पंचम आस्तिक्य तो श्रद्धा का पूर्ण विकास है, अतः उसका प्राकट्य तो होना ही है। इन सब चिह्नों के प्रकट होने से यह प्रतीत होने लगता है कि साधक अपने मार्ग पर सम्यक् रीति से अग्रसर हो रहा है और अब वह सांसारिक विषयों की ओर आकृष्ट न होकर, मोक्ष मार्ग पर तीव्र गति से आगे बढ़ सकेगा।
महर्षि पतञ्जलि के अनुसार भी श्रद्धा वैराग्य को समृद्ध करती हई अभ्यास में साधक को निरन्तर प्रवृत्त रखती है, और अन्त में उसे समाधि की उत्कृष्टतम कोटि तक पहुँचा देती है। जिन्होंने पूर्व जन्म में पर्याप्त योग-साधना की है, उनके लिए भले ही श्रद्धा की बहुत अपेक्षा न हो, किन्तु अन्य साधक साधना के प्रति श्रद्धावान् होने पर ही समाधि रूप मोक्ष-मार्ग पर अग्रसर हो पाते हैं, और कुछ विशिष्ट कोटि के साधकों में साधना-काल में विविध सिद्धियाँ प्रकट होने लगती हैं।' भेद : सम्यग्दर्शन भी श्रद्धा होने के कारण एक मनोभाव है। किसी भी मनोभाव की स्थिति विशेष अर्थात प्रबलता के स्तर के आधार पर उसके अनन्त भेद हो सकते हैं। जिन परिस्थितियों में उस मनोभाव का उदय होता है उसके आधार पर भी प्रत्येक मनोभाव के अनेक भेद किए जा सकते हैं। अनन्त भेदों की संभावना के कारण प्रत्येक भेद का परिगणन करना संभव नहीं है। जैन आचार्यों ने सभ्यग्दर्शन रूप
१. साहित्यदर्पण, २/१० २. योगबिन्दु, स्वोपज्ञ वृत्ति, २५२: श्रावकप्रज्ञप्ति, ५६, धर्मसंग्रहिणी, ८०६: योगशास्त्र, २/५: अध्यात्मसार, ४/१२/२४ ३. ज्ञानार्णव, ६/६/४: परमात्मप्रकाश (टीका).२/१७/१३२/५: तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/२/३ ४. भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् । श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकं इतरेषाम् । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१६-२)
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