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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
आ. जैनयोग और आचार
जैन-परम्परा में भी मोक्ष की प्राप्ति हेतु साधना के एक समन्वित मार्ग का प्रवर्तन हुआ है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के नाम से प्रसिद्ध है। जैन तीर्थंकरों एवं साधुओं ने तत्त्वज्ञान और उसके द्वारा निर्दिष्ट साधना के पूर्व उसके उपायों के प्रति श्रद्धा को अनिवार्य बतलाया
जैन-परम्परा में सम्यक आचार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और उसे केन्द्र में रखकर ही धर्मविषयक चिन्तन का विकास हुआ है। कोई व्यक्ति जो जैनागमों का ज्ञाता तो है, परन्तु तदनुरूप आचरण नहीं करता, तो उसका वह संपूर्ण ज्ञान निरर्थक और विस्मरणशील है। केवल शास्त्रों के ज्ञाता को म्लेच्छ या शब्ददैत्य कहा जाता है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञानी है, उसका न कोई महत्त्व है और न सार्थकता। ज्ञान का महत्व उसके अनुरूप आचरण में है और उसकी सार्थकता मनोनिग्रह, संयम, वीतरागता व मोक्षानुरक्ति में। इस कारण मनोनिग्रहकारक एवं वीतरागता-उत्पादक 'ज्ञान' को ही 'सच्चा ज्ञान' कहा गया है। आचार का पालन करने से ही ज्ञान में निखार आता है और वह स्पष्ट एवं परिपक्व बनता है। बिना आचरण (सम्यक्चारित्र) के उसमें पूर्णता नहीं आती। अतः ज्ञान के पूर्ण विकास के लिए सम्यक् आचरण और आचरण की शुद्धता एवं पूर्णता के लिए ज्ञान परस्पर पूरक तथा अनिवार्य हैं। ज्ञान और क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। इसीलिए जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप को मोक्षमार्ग के रूप में निरूपित किया गया। इनकी विशेषता यह भी है कि इन तीनों में सम्पूर्ण जैन आचार व तात्त्विक विवेचना समाहित है।
यद्यपि जैनदर्शन में संकीर्ण सम्प्रदायनिष्ठता के लिए कोई स्थान नहीं है तथापि व्यवहारिक दृष्टिकोण से उसके त्रिविध साधना-मार्ग में सम्प्रदायनिष्ठता स्पष्ट दिखाई देती है। आ० हरिभद्र ने सम्प्रदायनिष्ठ संकीर्णता को दूर करने तथा जैनाचार को सर्वग्राह्य बनाने के लिए तत्कालीन परिस्थिति व लोकरुचि के अनुरूप, अभिनव दृष्टिकोण अपनाया और सभी धार्मिक व्यापारों को 'योग' की संज्ञा देकर, साधना की दृष्टि से योग के क्षेत्र को भी एक नवीन दिशा प्रदान की।
आ० शुभचन्द्र ने भी प्राचीन-परम्परा का अनुसरण करते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ओर सम्यक्चारित्र का मोक्ष-मार्ग के रूप में विवेचन किया। आत्मज्ञान की वृद्धि करना ही ज्ञानार्णव की रचना का एकमात्र उद्देश्य था। इसलिए ज्ञानार्णव में उन्होंने केवल साध्वाचार का ही निरूपण किया और ध्यान-साधना करने वाले साधक के लिए गृहस्थाश्रम के त्याग का स्पष्ट विधान किया।
१. तत्त्वार्थसूत्र, १/१ ; योगप्रदीप, ११३ योगशास्त्र, १/१५ २. (क) क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् ।
गतिं बिना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ।। स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्वोऽप्यपेक्षते ।
प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि, तैलं पूर्त्यादिकं यथा ।। - ज्ञानसार, ६/२,३; अध्यात्मोपनिषद, ३/१३, १४ (ख) तुलना : भावप्राभृत, ५२, ५३; शीलप्राभृत, ३०, ३१
मूलाचार, २६७. २६८ ४. ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र .१/१ मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो विधम्मवावारो। - योगविंशिका, १ ज्ञानार्णव, अध्याय ६ से १६ न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया ।। कृतिः किं तु मदीयेयं स्वबोधायैव केवलम् ।। - वही, १/१६ वही, ४/१०-१३
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