________________
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
विद्यमान होता है और यह मोक्ष का हेतु है इसलिए इसे 'तद्धेतु अनुष्ठान' कहा गया है।' उपा० यशोविजय ने इस अनुष्ठान के साधक को मार्गानुसारी तथा चरमावर्ती जीव कहा । उनके मत में चरमावर्त में की जाने वाली क्रियायें अनाभोग, अनादर, विस्मृति तथा फलाकांक्षा के बिना की जाती हैं। ऐसे समय में साधक को धर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है, जो मोक्ष का कारण होता है। अतः इसे 'तद्धेतु-अनुष्ठान' कहते हैं ।
116
५. अमृतानुष्ठान
चन्दन और उसकी सुगन्ध के समान जो आत्मा के सहज स्वाभाविक तथा शुद्ध भावधर्म हैं, वे आत्मा से अभिन्न हैं । इस भावधर्म अथ च आत्मधर्म से (गर्भित) अनुष्ठान, 'अमृतानुष्ठान' कहा जाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा को समक्ष रखकर भावशुद्धि अथवा चित्तशुद्धिपूर्वक किया जाने वाला अत्यन्त संवेग से गर्भित अनुष्ठान, ‘अमृत-अनुष्ठान' कहलाता है। इस अनुष्ठान का फल अमृत के समान आनन्ददायक होता है, अर्थात् साक्षात् मोक्ष का कारण होता है । *
यद्यपि योगशतक में उक्त अनुष्ठानों की चर्चा करते हुए केवल यह सामान्य सूचना दी गई है कि प्रत्येक अनुष्ठान अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप 'योग' ही है, क्योंकि उसमें अपध्यान अर्थात् दुर्ध्यान का प्रायः अभाव होता तथा सर्वदर्शन सम्मत योग के लक्षण उसमें घटित होते हैं।
गृहस्थ व मुनि के लिए पृथक्-पृथक् धर्मानुष्ठान
जैन-परम्परा में मुनि व गृहस्थ दोनों के लिए पृथक्-पृथक् अनगार व सागारधर्म का प्रतिपादन है। जहाँ गृहस्थ व्रतों का आंशिक व स्थूल पालन करता है, वहाँ मुनि पूर्णता सूक्ष्मदृष्टि से पालन करता है। उक्त आगमिक विभाजन का आ० हरिभद्र और हेमचन्द्र आदि ने भी समर्थन किया है।' उन्होंने गृहस्थ को सद्धर्म के पालन में बाधा उपस्थित न हो इस बात का ध्यान रखते हुए आजीविका चलाने तथा निर्दोष दान देने, वीतराग पूजा, विधिपूर्वक भोजन, संध्याकालीन उपासना आदि करने का उपदेश दिया है। इसके अतिरिक्त जैन- परम्परा में प्रचलित प्रतिक्रमण आदि आवश्यक कर्म, चैत्यवन्दन, धर्मश्रवण और साधुजन को संयम
१. एतद्रागादिकं हेतुः श्रेष्ठो योगविदो विदुः । सदनुष्ठानभावस्य शुभभावांश-योगतः ।। - (क) सनुष्ठानरागेण तद्धेतुर्मार्गगामिनाम् ।
२.
३.
४.
५.
६.
योगबिन्दु, १५६
एतच्च चरमावर्तेऽनाभोगादेर्विना भवेत् ।। (ख) तद्धेतुरमृतं तु स्याच्छ्रद्धया जैनवर्त्मनः । (ग) सदनुष्ठानरागतः तात्त्विकदेवपूजाद्याचारभावबहुमानादि .
- अध्यात्मसार ३/१०/ १७
Jain Education International
- द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/१३
-
सहजो भावधर्मो हि सुगन्धश्चन्दनगन्धवत् एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं सम्प्रचक्षते ।। - अध्यात्मसार, ३/१०/२५
(क) जिनोदितमितित्वाहुर्भावसारमदः पुनः । एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं मुनिपुंगवाः ।।
(ख) जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य प्रवृत्तं चित्तशुद्धितः ।
संवेगगर्भमत्यन्तममृतं तद्विदो विदुः ।।
-
- योगबिन्दु, १६०
. तद्धेतुरुच्यते । - वही १३/१३ पर स्वो० वृ०
- अध्यात्मसार, ३/१०/२६
(ग) जैनवर्त्मनो जिनोदितमार्गस्य श्रद्धया इदमेव तत्त्वमित्यध्यवसायलक्षणया त्वनुष्ठानममृतं स्यात्, अमरणहेतुत्वात् ।
- द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १३/१३ पर स्वो० वृ० एएसिं नियणियभूमियाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं । आणामयसंयुतं तं सव्वं चेव योगो त्ति ।। तल्लक्खणयोगाओ उ चित्तवित्तीणिरोहओ चेव । तह कुसलपवित्तीए मोक्खेण उ जोयणाओ त्ति ।। योगशतक, २१-२२ योगशास्त्र, १/४६ : श्रावकप्रज्ञप्ति, ६, १०६ : योगशतक, २७-३२ व टीका
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org