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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
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की अवहेलना करते है। जो मोक्ष के प्रति द्वेष रखते हैं, वे महामोह से अभिभूत, अकल्याणमय जीव जन्म-मरण के चक्र में फँसकर संसारवर्धन करते हैं।
इसके विपरीत जो जीव मोक्ष के प्रति द्वेष नहीं रखते, उन्हें प्रशंसायोग्य कहा गया है। जो जीव संसार के बीज रूप मोह का त्याग कर चुके होते हैं, वे कल्याण के भागी होते हैं। इस प्रकार मोक्ष के प्रति द्वेषभाव न रखते हुए तदनुरूप आचरण करने से मोक्ष प्राप्त करने में सहायता मिलती है। जो जीव मुक्ति के प्रति अद्वेष, गुरु देवादि का पूजन आदि कार्य करते हैं, वे ही आत्महित करते हैं।
व जिनकी आत्मा दोषयुक्त है, वे उत्तम कल्याण-मार्ग को प्राप्त नहीं कर सकते। जो दोषयुक्त होने पर भी सत्कार्य करते हैं, उनके द्वारा, बड़े-बड़े दोषों का सेवन करने वाले जीव के द्वारा, घोर दोषपूर्ण क्रिया करने वाले जीव के द्वारा किए गए छोटे-छोटे सत्कार्य भी महत्त्वहीन हो जाते हैं। यह तो भीलों के राजा की उस आज्ञा जैसा है जिसमें उसने अपने भौत-भौतिकता प्रधान गुरु (अथवा शरीर पर भूति-राख मलने वाले) को पैर से स्पर्श न करने का आदेश देकर आदरभाव व्यक्त किया था, परंतु साथ ही गुरु के वध की आज्ञा देकर घोर हिंसामय अपराध भी किया। गुरुजनों की पूजादि के जो पूर्वसेवा आदि प्रकार हैं, उनमें सबसे अधिक महत्त्व मुक्ति के प्रति अद्वेषभाव का ही है। इसीलिए आ० हरिभद्र ने सांसारिक जंजाल से निवृत्त होने के लिए मुक्ति के प्रति अद्वेषभाव रखने का उपदेश दिया है।
उपर्युक्त धार्मिक व्यापारों का पालन किए बिना साधक को मोक्ष प्राप्ति के अग्रिम सोपानों पर चढ़ने की योग्यता प्राप्त नहीं होती, इसलिए यथार्थ रूप से योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व प्राथमिक योग्यता के रूप में उक्त धर्मों का पालन अनिवार्य है। पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित क्रियायोग' (तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान) तथा अष्टांगयोग के द्वितीय अंग 'नियम' में इनका अन्तर्भाव हो जाता है। अन्तर केवल यह है कि योग-परम्परा में इन्हें स्पष्ट रूप से पूर्वभूमिका के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया गया। (ख) मार्गानुसारी के गुण
आ० हरिभद्र एवं हेमचन्द्र ने मार्गानुसारी के निम्नलिखित ३५ गुण बताये हैं - १. न्याय-नीति से धनोपार्जन करना। २. शिष्टजनों का यथोचित सम्मान करना, उनसे शिक्षा ग्रहण करना और उनके आचार की प्रशंसा
करना।
१. योगबिन्दु, १३७, १३८; द्वात्रिंशदवात्रिंशिका,१२/२३-२५ : तुलना : पातञ्जलयोगसूत्र, २/१५ एवं उस पर तत्त्ववैशारदी टीका २. महामोहामिभूतानामेवं द्वेषोऽत्र जायते ।
अकल्याणवतां पुसां तथा संसारवर्धनः ।।- योगबिन्दु, १३६ नास्ति येषामयं तत्र तेऽपि धन्याः प्रकीर्तिताः । भवबीजपरित्यागात् तथा कल्याणभाजिनः ।। - वही, १४० अनेनापि प्रकारेण द्वेषाभावोऽत्र तत्त्वतः । हितस्तु यत् तदेतेऽपि तथाकल्याणभागिनः ।। - वही. १४६ येषामेव न मुक्त्यादौ द्वेषो गुर्वादिपूजनम् । त एव चारु कुर्वन्ति नान्ये तदगरुदोषतः ।। - वही, १४७ सच्चेष्टितमपि स्तोकं गुरुदोषवतो न तत् । भौतहन्तुर्यथाऽन्यत्र पादस्पर्शनिषेधनम् ।। - वही, १४८ गुर्वादिपूजनान्नेह तथा गुण उदाहृतः। मुक्त्यद्वेषात् यथाऽत्यंत महापायनिवृत्तितः ।। - वही, १४६ धर्मबिन्दु, १/३-५७ योगशास्त्र, १/४७-५६
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