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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
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(ख) गोत्रयोगी ___'भूमिभव्य' व नामधारी योगियों को 'गोत्रयोगी' कहा जाता है। 'भूमिभव्य' उन्हें कहते हैं, जो आर्यक्षेत्र के अन्तर्गत भारतभूमि में उप्पन्न होते हैं। इस भूमि में योग-साधना के अनुकूल उत्तम सामग्री, साधन, निमित्त आदि सहज उपलब्ध हो जाते हैं किन्तु उनमें वह योग्यता, भव्यता अथवा सुपात्रता नहीं होती कि वे योग-साधना कर सकें। केवल भूमि की भव्यता से साधना निष्पन्न नहीं होती। वह तभी सधती है, जब साधक में अपनी भव्यता, योग्यता एवं सुपात्रता विद्यमान हो। इसीलिए आ० हरिभद्र ने कहा है कि दूसरे गोत्रयोगी होते हुए भी कुलयोगी नहीं होते। (ग) प्रवृत्तचक्रयोगी
जिसका अहिंसादि योगचक्र प्रवृत्त हुआ हो उसे 'प्रवृत्तचक्रयोगी' कहते हैं। जिस प्रकार चक्र के किसी भाग पर डण्डा सटाकर घुमा देने पर वह स्वयं घूमने लगता है, उसी प्रकार जिन योगियों का योगचक्र उनके किसी अंग का संस्पर्श कर देने पर स्वयं ही योग में प्रवृत्त हो जाता है, वे 'प्रवृत्तचक्रयोगी' कहलाते हैं। आ० हरिभद्रसूरि लिखते हैं कि जिनमें इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम और सिद्धियम, इन चार प्रकार के यमों में से पहले दो यम सिद्ध हो चुके होते हैं और शेष दो को प्राप्त करने की इच्छा होती है, तथा जो शुश्रुषा आदि गुणों से युक्त होते हैं, वे 'प्रवृत्तचक्रयोगी' हैं। __ प्रवृत्तचक्रयोगी अपनी आत्मोन्नति के लिए अनेक प्रकार के चारित्र का पालन करता हुआ, राग-द्वेषादि से छुटकारा पाकर आत्मगुणों की वृद्धि के क्रम में तीन प्रकार की अवञ्चकताओं को पूरा करता है। 'अवञ्चक' का अर्थ है - जो कभी वञ्चना (ठगी) न करे। तात्पर्य यह है कि जो बिना चूके बाण की तरह सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँच जाये, वही अवञ्चक है। अवञ्चक तीन प्रकार के कहे गये हैं - योगावञ्चक, क्रियावञ्चक ओर फलावञ्चक। इन तीन अवंचकों की प्राप्ति सत्पुरुषों को उनके द्वारा कृत प्रणाम, वैयावत्य, सेवा आदि कार्यों के परिणामस्वरूप होती है।
१. योगावञ्चक ___जिनके दर्शन से मन में पवित्रता का संचार होता है, ऐसे कल्याणदृष्टि-सम्पन्न विशिष्ट पुरुषों के साथ योग या सम्बन्ध होना योगावञ्चकता है। सत्पुरुषों का सहयोग साधक के लिए प्रकाशस्तम्भ है, साधक के लिए आगे बढ़ने का यह आद्य सोपान है, अतः ऐसे साधक को आद्यावञ्चक भी कहते हैं।
२. क्रियावञ्चक
सत्पुरुषों के दर्शन (सुयोग) के पश्चात् उनका वंदन, स्तवन, कीर्तन, वैयावृत्य, सेवादि क्रिया करना
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जैनयोग-ग्रन्थचतुष्टय, पृ०६८ २. कुलयोगिन उच्यन्ते गोत्रवन्तोऽपि नापरे ।।-योगदृष्टिसमुच्चय, २१०: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/२१
प्रवत्तचक्रास्तु पुनर्यमद्वयसमाश्रयाः । शेषद्वयार्थिनोऽत्यन्तं शुश्रूषादिगुणान्विताः ।।- योगदृष्टिसमुच्चय, २१२ योगक्रियाफलाख्यं यत्श्रूयतेऽवंचकत्रयम् । साधूनाश्रित्य परममिषुलक्ष्यक्रियोपमम् ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ३४: द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/२५ एतच्च सत्प्रणामादिनिमित्तं समये स्थितम् । अस्य हेतुश्च परमस्तथाभावमलाल्पता।।- योगदृष्टिसमुच्चय, ३५, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/२६ सदभिः कल्याणसंपन्नैर्दर्शनादपि पावनैः । तथा दर्शनतो योग आद्यावंचक उच्यते।।- योगदृष्टिसमुच्चय, २१६: द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १६/२६
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