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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
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करना पड़ता है। तदनुरूप कुछ योग्यता अर्जित करनी पड़ती है। महर्षि पतञ्जलि ने तीन प्रकार के साधकों के लिए तीन प्रकार के योग-उपायों (अभ्यास-वैराग्य, क्रियायोग, अष्टांगयोग) का विधान किया गया है। किस प्रकार का साधक अष्टांगयोग का पालन करने के योग्य हो सकता है, इस विषय की कोई चर्चा उन्होंने नहीं की है। सम्भवतः उनकी दृष्टि में सभी व्यक्ति योग-साधना करने की योग्यता रखते हैं। यह बात दूसरी है कि साधना की उच्च कोटि में सभी व्यक्ति न पहुँच सकें। आ. जैनयोग-मत
जैनधर्म में निवृत्तिमार्ग की प्रधानता है और निवृत्ति का मार्ग साधुचर्या है। वही मोक्ष का साक्षात् मार्ग है। किन्तु सबके लिए साधु-मार्ग पर चलना सम्भव नहीं है, और मुनिधर्म/साधुधर्म को अपनाये बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है। जैनधर्म में प्रत्येक जीव के लिए मोक्ष प्राप्त करना जीवन का अंतिम लक्ष्य बताया गया है, तथा गृहस्थ के लिए गृहस्थधर्म या सागारधर्म और मुनि के लिए
धर्म या मुनिधर्म का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार जैन-परम्परा में निवृत्तिमार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ गृहस्थ साधकों के लिए धर्मपूर्वक प्रवृत्तिमार्ग का प्रावधान है।
उक्त प्रवृत्तिमार्ग अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देता है। प्रवृत्तिमार्ग में रहते हुए भी साधक का लक्ष्य यह रहता है कि वह उस स्थिति से ऊपर उठकर अर्थात् शुभ-अशुभ दोनों प्रवृत्तियों से रहित शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति कर सके। निवृत्तिमार्ग की चरम परिणति पूर्ण वीतरागता एवं अर्हन्त-पद अथवा जीवन्मुक्त अवस्था की प्राप्ति में होती है। इस कारण जैन-परम्परा में साधक के लिए निवृत्तिपरक आचार की प्रधानता दिखाई देती है। वैदिक-परम्परा के गीता, धर्मसूत्र, एवं स्मृति आदि ग्रन्थों में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों प्रकार के मार्गों का संकेत मिलता है। आ० हरिभद्रसूरि ऐसे प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने जैन-परम्परा को वैदिक-परम्परा के अनुकूल ढालने का प्रयत्न किया है। आ० हरिभद्र मूलतः ब्राह्मण थे। अतः ऐसी संभावना करना उचित है कि उनके विद्याभ्यास का प्रारम्भ प्राचीन ब्राह्मण-परम्परा के अनुरूप ही हुआ होगा और उन्होंने समस्त ब्राह्मणग्रन्थों का गहनता से परिशीलन किया होगा। वैदिक एवं जैन दोनों परम्पराओं में प्रचलित विधानों की परस्पर तुलना करने पर जब उन्हें अनभव हआ होगा कि गृहस्थवर्ग समाज का केन्द्र बिन्द है, तो उन्होंने गहस्थ के लिए आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति करने हेतु सामाजिकधर्म एवं मर्यादाओं का योग्य रीति से पालन करते हुए उनके आध्यात्मिक विकास का पथ विशेष रीति से प्रशस्त किया। आध्यात्मिकता के नाम पर अवश्य आचरणीय सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा से आध्यात्मिक विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है। इसलिए आ० हरिभद्र ने साधक गृहस्थवर्ग के लिए निवृत्ति के साथ-साथ प्रवृत्तिधर्म की दृष्टि से आचरणीय कुछ आवश्यक नियमों एवं कर्तव्यों का विधान किया, जिन्हें मार्गानुसारी साधक के गुणों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अन्य योग ग्रन्थों में उक्त आवश्यक कर्तव्य, योग-मार्ग में प्रवेश करने से पहले की जाने वाली पूर्व
ॐ
१. अनगारधर्माभृत, प्रस्तावना, पृ०१४-१५ २. सागारधर्मामृत, १/३
आत्मानुशासन, २३५, ज्ञानार्णव, २३/१, २५. ३०. ३७ आत्मानुशासन, २३६ वही, २३७ (क) प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविध कर्म वैदिकम् ।
आवर्तेत प्रयत्नेन, निवृत्तेनाश्नुते मृतम् ।। - भागवतपुराण,७/१५/४७ (ख) भागवतपुराण,६/१/१-२: मनुस्मृति, १२/८८: महाभारत, शान्तिपर्व, ३४०/२-३. १६/१.३६/१२-१३. २१७/४ ७. धर्मबिन्दुप्रकरण, प्रथम अध्याय
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