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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
आ० हरिभद्रसूरि ने चारित्री को तृतीय श्रेणी का साधक माना है। उनका अभिमत है कि तृतीय श्रेणी के साधक को युक्तिपूर्वक सामायिक आदि से सम्बद्ध (परमार्थोद्दिष्ट) भावप्रधान उपदेश दिया जाना चाहिए, क्योंकि वैसा उपदेश ही उसके लिए उत्तरोत्तर उत्तम योग का साधक माना गया है। __ सभी अशुभ या सावद्य योगों से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति, कषायहीनता एवं शुद्ध-स्वरूप में रमण, इन सभी का समावेश 'चारित्र' में किया जाता है। साधक अशुभ कर्मों से निवृत्त होकर शुभ कर्मों में प्रवृत्त होता है, और धीरे-धीरे रागादि कषायों को क्रमशः क्षीण करते हुए पूर्ण शुद्ध आत्म-स्वरूप में स्थिरता रूपी आचरण का पालन करने में सक्षम होता है। हरिभद्रसूरि के शब्दों में जब सम्यग्दृष्टि जीव अपने लिए निर्दिष्ट अनुष्ठानों का पालन करता हुआ विकास के उस चरण तक पहुँच जाता है, जहाँ पर दो से नौ पल्योपम तक की अवधि के मध्य किसी भी अवस्था तक के उसके कर्म निवृत्त हो जाते हैं, तब वह चारित्री कहलाने लगता है। चारित्री के लक्षण
हरिभद्रसूरि के अनुसार धार्मिक तत्त्वों में रुचि रखना, सिद्धान्तप्रिय होना, आध्यात्मिक गणों में अनुराग रखना, सदनुष्ठान में क्रियाशील रहना, यथाशक्ति धर्म का पालन करना - ये सब ‘चारित्री' के लक्षण हैं। ___ योगबिन्दु में चारित्री के लक्षणों को सोदाहरण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार सुनसान जंगल में भटकते हुए नेत्रहीन व्यक्ति, जिसके आसातावेदनीय दुःखप्रद कर्म का उदय नहीं हुआ है, वह गड्ढ़े आदि से बचता हुआ, अपने मार्ग पर चलता जाता है, ठीक उसी प्रकार संसार रूपी भयानक जंगल में भटकता हुआ जीव सातावेदनीय कर्म का उदय होने पर अपने को पापकर्मों से बचाता हुआ, शास्त्रज्ञान रूपी नेत्र से रहित होने पर भी, सम्यक् मार्ग पर गतिशील होता है अर्थात् शुभ धर्माचरण में क्रियाशील होता है। जिस जीव में उपर्युक्त गुण नहीं पाये जाते, उसको चारित्रगुण की प्राप्ति नाममात्र की हुई है, ऐसा समझना चाहिए तथा जिसमें उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान होते हैं, उनके चारित्र में भी पूर्वसंचित कर्मों की विचित्रता होने से कुछ दोष आ जाते हैं।"
तइयस्स पुण विचित्तो तदुत्तरसुजोगसाहणो भणिओ। सामाइयाइविसओ नयनिउणं भावसारो ति ।। - योगशतक, २६ पल्योपम के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी हेतु देखें : पउमचरियं, विमलसूरि २०/६५-६६: तत्वार्थाधिगमभाष्य, ४/४५.पृ० २६४;
सर्वार्थसिद्धि. ३/३८; अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ० ५७: अनुयोगद्वार, हरिभद्रवृत्ति, पृ० ८४; धवला. पुस्तक १४. पृ० ३०० ३. (क) एवं तु वर्तमानोऽयं चारित्री जायते ततः।।
पल्योपम-पृथक्त्वेन विनिवृत्तेन कर्मणः ।। - योगबिन्दु, ३५२ (ख) द्विप्रभृत्यानवभ्यः पृथक्त्य......- वही. ३५२ पर स्वो० वृ० ४. (क) लिङ्ग मार्गानुसार्येष श्राद्धः प्रज्ञापनाप्रियः ।
गुणरागी महासत्त्वः सच्छक्यारम्भसंगतः ।। - वही, ३५३ (ख) मग्गणुसारी सद्धो पन्नवणिज्जो कियावरो चेव।
गुणरागी-सक्कारंभसंगओ तह य चारित्री ।। - योगशतक. १५ जिस कर्म का वेदन/अनुभव परिताप के साथ किया जाता है, उसे असातावेदनीय कहते हैं। - श्रावक प्रज्ञप्ति (टीका) १४; धर्मसंग्रहणी, मलयगिरिवृत्ति, पृ० ६११; धवला. पुस्तक ६, पृ० ३५ असातोदयशून्योऽन्धः कान्तारपतितो यथा। गर्तादिपरिहारेण सम्यक तत्राभिगच्छति।। तथाऽयं भवकान्तारे पापादिपरिहारतः। श्रुतचक्षुर्विहीनोऽपि सत्सातोदयसंयुतः ।। - योगबिन्दु. ३५४-३५५ अनीदृशस्य तु पुनश्चारित्रं शब्दमात्रकम् । ईदृशस्यापि वैकल्यं विचित्रत्वेन कर्मणाम् ।। - वही, ३५६
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