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योग का स्वरूप एवं भेद
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इच्छायोग भी धर्मवृत्ति ही है, लेकिन इसमें क्रियाशुद्धि की अपेक्षा धर्मप्रवृत्ति की इच्छा प्रधान मानी जाती है, जबकि क्रिया अशुद्ध भी हो सकती है। शास्त्रयोग, इच्छायोग की अपेक्षा उच्चतर प्रवृत्ति है। इसमें शास्त्र अर्थात् शास्त्रीय औत्सर्गिक एवं अन्य समस्त नियमों का पालन प्रधान और क्रियाशुद्धि अखण्डित रहती है। सामर्थ्ययोग में तो शास्त्रीय आदेशों के पूर्ण पालन के अतिरिक्त आत्मा की अचिन्त्य सामर्थ्य प्रकट होने से धर्म-प्रवृत्ति अत्यधिक बलवती होती है।'
श्री एस० एम० देसाई इन तीन योगों को तीन प्रकार के साधकों के आधार पर विभाजित हुआ मानते हैं। उनके मत में तीन प्रकार के साधक होते हैं, जिनमें से कुछ साधकों में योग का अभ्यास करने की तीव्र इच्छा तो होती है, परन्तु प्रमादवश वे उसका अभ्यास नहीं करते। कुछ साधक ऐसे होते हैं जो शास्त्रों का अनुसरण तो करते हैं, परन्तु उनकी गहनता तक पहुँचने की सामर्थ्य उनमें नहीं होती। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे साधक भी होते हैं, जिनमें योग-साधना में प्रवृत्त होने की सामर्थ्य होती है, तथा वे सरलता से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इन तीन प्रकार के साधकों द्वारा अनुकरणीय योग ही त्रिविध योगों में विभक्त है। तीन योगों का स्वरूप इस प्रकार है -
१. इच्छायोग ___ 'इच्छायोग' में इच्छा प्रधान होती है। धर्म करने की शुद्ध अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। धर्मसाधना की इच्छामात्र करना 'योग' नहीं है, और न ही बिना इच्छा के किया गया धर्मव्यापार 'योग' है। इसलिए हरिभद्रसूरि ने योग का स्वरूप निर्धारित करते समय धर्म में प्रवृत्त होने की इच्छा के साथ-साथ गुरु-मुख से अथवा शास्त्रों के अध्ययन या श्रवण से उन धार्मिक क्रियाओं एवं उनके विधि-विधानों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना 'योग' के लिए आवश्यक बतलाया है। 'इच्छायोग' में धर्मप्रवृत्ति की शुद्ध इच्छा एवं उसका शास्त्रीय तत्त्वज्ञान होने पर भी साधक प्रमादवश त्रुटित धर्मप्रवृत्ति करता है। संक्षेप में 'इच्छायोग' के चार विशिष्ट लक्षण हैं - १. प्रवृत्त होने की इच्छा, २. शास्त्रश्रवण, ३. कर्तव्यबोध एवं ४. पुरुषार्थ । ___ 'इच्छायोग साधना की प्रथम श्रेणी है जिसमें इच्छा होने पर भी प्रमादवश साधना खण्डित हो जाती है, जो अग्रिम श्रेणी में अखण्डता में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु श्री देसाई का मत है कि 'इच्छायोग' में साधक के लिए तीव्र इच्छा की भूमिका भी अतिमहत्वपूर्ण होती है। साधक में जितनी तीव्र इच्छा होगी, उतनी ही तीव्रगति से वह अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेगा। उपा० यशोविजय के अनुसार निर्दम्भता सहित किया गया इच्छायोग शुभानुबन्धकारक तथा अज्ञाननाशक होता है।
१. 2. ३
ललितविस्तरा, हिन्दी विवेचन, पृ० ४६-५० Haribhadra's Yoga Works and psychosynthesis, p. 51-52 इच्छाप्रधानत्यं चास्य.............| - योगदृष्टिसमुच्चय, गा०३ स्वो० वृ० प्रमाद के अनेक भेद शास्त्रों में प्रतिपादित हैं। आ० हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ में प्रमादों की संख्या पांच बताई है। वे पांच हैं - मदिरादि व्यसन, विषयासक्ति, क्रोधादि कषाय, निद्रा और विकथा - (राजकथा, देशकथा, भक्तकथा, और स्त्रीकथा)।
- उत्तराध्ययननियुक्ति (नियुक्ति संग्रह). १८०, उद्धृत : नन्दीसूत्र (सू० ८३) पर हरिभद्र वृ० पृ०७१ (क) कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः।
विकलो धर्मयोगो यः स इच्छायोग उच्यते ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ३ (ख) चिकीर्षोः श्रुतशास्त्रस्य ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः ।
कालादि-विकलो योगः इच्छायोग उदाहृतः ।। -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/२ This type of Yoga mainly shows the intensity of the intention or the Keenness of the Sadhaka. The Keener the intention the speedier is he on his way to the goal.
- Haribhadra's Yoga Works and psychosynthesis, p. 51-52 अध्यात्मसार, ७/२०/२६.३०
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