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२. व्यवहारयोग
सम्यग्ज्ञानादि तीनों गुणों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, परन्तु आत्मा में इन गुणों का न तो स्वतः आविर्भाव होता है और न ही ये स्वतः विकसित होते हैं। इनकी प्राप्ति और विकास के लिए कुछ प्रयत्न करना पड़ता है, कुछ धार्मिक क्रियाओं का पालन करना पड़ता है, तथा अनुभवी व्यक्तियों से प्रवृत्ति - निवृत्ति संबंधी क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करना होता है। आत्मिक गुणों के विकास के लिए जिन धर्मशास्त्रोक्त विधि-निषेधों का पालन तथा गुरुविनय और गुरुसेवा आदि करने पड़ते हैं, उन्हें भी ग्रन्थकार ने 'व्यवहारयोग' की संज्ञा से अभिहित किया है। चूंकि कारण में कार्य विद्यमान रहता है, इसलिए सम्यग्ज्ञानदि रूप कारणों का आत्मा व मोक्ष के साथ संबंध भी व्यवहारतः 'योग' कहा जाता है। इस व्यवहारयोग के पालन से कालक्रम से अर्थात् उत्तरोत्तर शुद्धता से निश्चययोग प्राप्त हो जाता है । जिसप्रकार कोई व्यक्ति किसी स्थान विशेष पर जाने के लिए गन्तव्य मार्ग की ओर चलना प्रारम्भ करता है, चाहे उसकी गति तीव्र हो या मन्द, यथाशक्ति गमन करते हुए उस पथिक को व्यवहार में इष्टपुर (गन्तव्य स्थान) का पथिक कहा जाता है, उसीप्रकार आध्यात्मिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए गुरु-विनय आदि में प्रवृत्त साधक, जो सम्यग्ज्ञानादि गुणों की परिपूर्ण उपलब्धि रूप योग को आत्मसात् नहीं कर सका है, परन्तु उस मार्ग पर यथाशक्ति गतिशील होने के कारण योगी कहा जाता है अतः सभी प्रकार के व्यवहार या शास्त्रनिरूपित ज्ञान जो अध्यात्मविकास की विभिन्न भूमिकाओं में उपयोगी हैं, वे 'योग' कहे जाते हैं ।
(घ) इच्छादि त्रिविध योग
आ० हरिभद्रसूरि ने साधक द्वारा क्रियान्वित किये जाने वाले धार्मिक व्यापारों के आधार पर योग के तीन भेद किये हैं- इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग ।' उपा० यशोविजय ने भी हरिभद्रसूरि का अनुमोदन कर द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका में इनका विशेष वर्णन किया है।"
उपर्युक्त त्रिविध योग तात्त्विक धर्म की वे प्रवृत्तियाँ हैं जिनमें क्रमशः इच्छा, शास्त्र एवं सामर्थ्य की प्रधानता रहती है। शुद्ध क्रिया की दृष्टि से ये क्रमशः त्रुटित, अखण्डित एवं अधिक बलवान् होते हैं अर्थात्
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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
गुरुविणओ सुस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु ।
तह घेवाणुद्वाणं विहिपडिसेहेसु जहसती योगशतक ५ ववहारओ य एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि ।
जो सम्बन्धो सो वि य कारणकज्जोवयाराओ । योगशतक, ४ एसो चिय काले नियमा सिद्धी पगिट्ठरुवाणं ।
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सन्नाणाईण तहा जाय अणुबंधभावेण ।। वही. ६
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अद्वेण गच्छतो सम्मं सत्तीए इट्ठपुरपहिओ ।
जह तह गुरुविणयाइसु पयओ एत्थ जोगिति । वही ७
एएसिं नियनियभूमिगाए उचियं जमेत्थऽणुट्ठाणं । आणामय संजुत्तं तं सव्वं चेव जोगो त्ति ।।
वही, २१
(क) इहेये च्छादियोगानां स्वरूपमभिधीयते ।
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योगिनामुपकाराय व्यक्तं योगप्रसंगतः ।
योगदृष्टिसमुच्चय २
(ख) "इच्छादियोगाना" इति इच्छायोगशास्त्रयोगसामर्थ्ययोगानाम् किमत आह.... । - वही, गा० २ पर स्वो० वृ०
इच्छां शास्त्रं च सामर्थ्यमाश्रित्य त्रिविधोऽप्ययम् 1
गीयते योगशास्त्रज्ञैर्निर्व्याजं यो विधीयते ।। - द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका. १६/१
(क) इच्छाप्रधानत्वं चास्य तथाऽकालादावपि करणादिति योगदृष्टिसमुच्चय, गा०३ स्वोल्यू०
(ख) शास्त्रप्रधानो योगः शास्त्रयोगः प्रक्रमाद्धर्मव्यापार एव । - वही गा० ४, स्वो० वृ०
(ग) सामर्थ्यप्रधानो योगः सामर्थ्ययोगः प्रक्रमाद्धर्मव्यापार एव क्षपक श्रेणीगतो गृह्यते । - वही, गा० ८ पर स्वो० वृ०
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