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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
वैराग्य के साधक होते हैं, केवल वे ही आत्म-साधना के अधिकारी हो सकते हैं, अन्य नहीं।'
योग का अधिकारी साधना का रसिक होता है। उसे सांसारिक विषय वासनाओं तथा उनकी चर्चा में बिल्कुल आनन्द नहीं आता। आध्यात्मिक या धार्मिक चर्चाओं में वह हर्षातिरेक से रोमांचित हो उठता है। व्यासभाष्य के अनुसार, जिस प्रकार वर्षाऋतु में तृणांकुर के फूटने से भूमि में उसके बीज की सत्ता का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार मोक्ष-मार्ग की चर्चा के श्रवण से जब किसी व्यक्ति का शरीर रोमांचित ओर नेत्रों में अश्रुपात दिखाई देने लगे, तो उससे यह अनुमान होता है कि उसके हृदय में मोक्ष सम्बन्धी विशेष दर्शन (श्रद्धा) का बीज विद्यमान है, अर्थात् उसने पूर्व जन्म में आत्मकल्याण की साधना की है। __ साधना के क्षेत्र में कुछ लोग काफी आगे बढ़े होते हैं तो कुछ प्रारम्भिक स्थिति में विद्यमान होते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो प्रारम्भिक स्थिति से थोड़ा आगे बढ़ चुके हैं, किन्तु साधना का लक्ष्य जिनके लिए अभी बहुत दूर है। इनमें से जो जितना आगे बढ़ा हुआ है, वह अपने पीछे रहने वाले साधक की अपेक्षा उत्तम है। विज्ञानभिक्षु एवं नागोजी भट्ट ने इसी दृष्टि से साधना के अधिकारियों के तीन भेद निर्धारित किये हैं - मन्द (आरुरुक्षु), मध्यम (युञ्जान) और उत्तम (योगारूढ़)। इनमें 'मन्द साधक' वह होता है, जो विषय-वासनाओं में फँसा होने पर भी योगमार्ग पर अग्रसर होने का इच्छुक होता है। इसे 'आरुरुक्षु' भी कहा जाता है। अष्टांगयोग-साधना में निरतं गृहस्थ इस कोटि में आता है। 'मध्यम अधिकारी' (युञ्जान) वह होता है जो संसार से विरक्त होकर तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान रूप क्रियायोग-साधना में संलग्न रहता है। वानप्रस्थ आश्रमधर्म का पालक इस कोटि का साधक कहा जा सकता है। 'उत्तम साधक' (योगारूढ़) वह व्यक्ति है, जो सभी काम-संकल्पों को छोड़ चुका है। ऐसे साधक के लिए अभ्यास और वैराग्य-साधना का उपदेश दिया गया है। उक्त साधक पूर्वजन्म में की गई बहिरंग-साधना के कारण साधना-मार्ग में सर्वाग्रणी माना गया है। 'जड़ भरत' आदि इसी उत्तम कोटि के साधकों में परिगणित किये जाते हैं। व्यास और भोज ने उत्तम साधक के लिए समाहितचित्त तथा मध्यम और मन्दसाधक के लिए व्युत्थितचित्त शब्द का प्रयोग किया है।
पातञ्जलयोगसूत्र के अनुसार योग-साधना में 'उपायप्रत्यय' नामक प्रथम कोटि का अधिकारी होने के लिए कुछ गुण अपेक्षित हैं। यथा - योग-साधना के प्रति श्रद्धा (आस्तिकता व सम्मान) वीर्य (अभिरुचि एवं उत्साह), स्मृति (अपने लक्ष्य एवं गन्तव्य मार्ग का अविस्मरण), समाधि (एकाग्रता की सामर्थ्य), और प्रज्ञा (हेयोपादेय विवेक से युक्त बुद्धि)।
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१. गीता.७/३ २. यथा प्रावृषि तृणांकुरस्योद्भवेन............ कर्माभिर्निवर्तितमित्यनुमीयते। - व्यासभाष्य, पृ०५३०
तत्र मन्दमध्यमोत्तमभेदेन त्रिविधा योगाधिकारिणो भवन्त्यारुरुक्षुयुञ्जानयोगारूढ़रूपाः। - योगसारसंग्रह, पृ० ३७ योगाधिकारिणस्त्रिविधा मन्दमध्यमोत्तमाः क्रमेणारुरुक्षुयुंजानयोगारूढ़रूपाः । - नागोजीभट्टवृत्ति, २/१ योगसारसंग्रह, पृ०६० वही, पृ० ५० यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।। - गीता, ६/४. द्रष्टव्य : अध्यात्मसार, ५/१५/२३ उद्दिष्टः समाहितचित्तस्य योगः । कथं व्युत्थितचित्तोऽपि योगयुक्तः स्यादित्येतदारभ्यते।
- व्यासभाष्य, अवतरणिका, सूत्र २/१, पृ० १६१ ६ तदेवं प्रथमे पादे समाहितचित्तस्य सोपायं योगमभिधाय व्युत्थितचित्तस्यापि कथमुपायाभ्यासपूर्वको योगः सात्म्यम्।
- भोजवृत्ति, अवतरणिका, सूत्र २/१, पृ०६० १०. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् । – पातञ्जलयोगसूत्र, १/२०
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