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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
शब्दों में कहा गया है कि पहले ज्ञान फिर क्रिया। वास्तव में ज्ञान और क्रिया की गौणता और मुख्यता को लेकर ही अवस्था-भेद होता है। अर्थात् जहाँ कर्मयोग होता है वहाँ क्रिया की प्रधानता और ज्ञान की गौणता होती है और जहाँ ज्ञानयोग होता है, वहाँ ज्ञान की प्रधानता और कर्म की गौणता होती है। । उक्त समस्त भेद आध्यात्मिक योग-साधना के क्रमिक सोपानों को संकेतित करने के लिए निर्धारित किये गये हैं। इनका अभ्यास कर साधक आत्मालोचन करने में समर्थ हो सकता है। वह यह जान सकता है कि वह साधना की किस भूमिका पर पहुँचा है, तथा उसे कितना आगे जाना है। दूसरी बात जो उक्त भेदों में परिलक्षित होती है, वह यह है कि साधना की निम्न कोटि में ही बाह्य क्रियाकाण्डों को स्थान दिया गया है। साधना की उच्च कोटि में ध्यान की उत्तरोत्तर अवस्था का पल्लवन होता जाता है और सारे क्रियाकाण्ड स्वतः छूटते जाते हैं। उक्त सभी भेदों का वर्णन करते हुए उक्त सोपानों में विद्यमान साधक की अवस्थाओं का एवं उसके द्वारा पालनीय अनुष्ठानों का विस्तार से वर्णन किया गया है। । प्रमुख जैन आचार्यों ने उक्त सोपानों का वर्णन करते हुए पातञ्जलयोगसूत्र सम्मत विविध सोपानों के साथ उनका तुलनात्मक संबंध स्थापित करने का भी प्रयास किया है, ताकि दोनों परम्पराओं की समानसत्रता (समानलक्ष्यता) के विषय में साधक दिग्भ्रान्त न हों. क्योंकि आचार्य हरिभद्र आदि जैनाचार्यों
स्पष्ट अभिमत व्यक्त किया है कि मोक्ष-साधना हेत योग की विभिन्न परम्पराओं में कोई मौलिक भेद नहीं है। यदि भेद है तो केवल निरूपण शैली का है। आ०सिद्धसेन ने भी नामादि भेद के आधार पर परस्पर विवाद करने को हेय माना है।'
१. पढमं नाणं तओ दया ।- दशवकालिकसूत्र, ४/३३
ज्ञानं क्रियाहीनं, न क्रिया वा ज्ञान वर्जिता ।
गुणप्रधानभावेन दशाभेदः किलैतयोः ।। - अध्यात्मसार, ५/१५/२४ ३. योगबिन्दु.३ ४. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (सिद्धसेन). २०/४, ४/१५, १६
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