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योग का स्वरूप एवं भेद
लक्ष्य हो, वह 'ज्ञानयोग' कहलाता है। यही 'ज्ञानयोग' समस्त कर्मों का क्षय करता है और मोक्ष-सुख का साधक है। डा० दीक्षित के मतानुसार शुभ तप से हरिभद्र का आशय धर्म अथवा शुभकोटि के जीवन व्यापार से है। मोक्ष का जनक सिद्ध होने के लिए इन व्यापारों में एक विशिष्टता होनी चाहिये अर्थात् वे फलकामना से रहित अर्थात् निष्काम भाव से संपादित किये जाने चाहिये।' यह विचार पूर्णतः आगम-सम्मत प्रतीत होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्मयोग स्वर्गादि सुख का तथा ज्ञानयोग मोक्ष-सुख का दाता है। जो साधु अप्रमत्त होते हैं उनके लिए आवश्यकादि क्रियाएँ करने का कोई प्रतिबन्ध नहीं है क्योंकि उनके जीवन में अविचारों (दोषों) का अभाव होता है। अपने ध्यान में विरोध न आये इसप्रकार वे उक्त क्रियाओं को करते भी हैं, क्योंकि उनके लिए उक्त क्रियाओं का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है। गीता में कहा गया है कि जो मुमुक्षु आत्मस्वरूप में ही रमण करता है, आत्मा में ही तृप्त रहता है, आत्मा में ही सन्तोष अनुभव करता है, उसके लिए कुछ भी करणीय नहीं है। ज्ञानयोगी भिक्षाचर्या आदि जो क्रियाएँ करता है वह केवल शरीर निर्वाहार्थ होती हैं क्योंकि शरीर के बिना धर्म-साधना नहीं हो सकती और शरीर आहारादि के बिना टिक नहीं सकता। यद्यपि ज्ञानयोगी की भिक्षाटन आदि क्रियाएँ देह से ही होती हैं, परन्तु अनासक्त भावना के कारण उनमें आत्मा का कोई सराग प्रयत्न नहीं होता। इसलिए वे क्रियाएँ साधक के उच्च ध्यान में किसी भी प्रकार विघातक नहीं होती। जैसे रत्नों की परीक्षा का प्रशिक्षण लेते समय जो दृष्टि होती है, वह रत्नों की परीक्षा के समय की दृष्टि से भिन्न होती है, क्योंकि दोनों के फल में अन्तर होता है। उसी प्रकार, ज्ञानी की आचार-क्रिया में भी अन्तर होता है। अतः सभी विषयों से मन को हटाकर ध्यानार्थ की जाने वाली क्रिया प्रारब्ध जन्म के संकल्प से होती है, जिसका फल आत्मलाभ होता है।
ज्ञान और क्रिया दोनों मिलकर मोक्ष के हेतु बनते हैं। ज्ञान का महत्त्व तभी संभव होता है, जब उसके अनुरूप आचरण किया जाए। ज्ञानपूर्वक किया गया आचरण ही योग है। अतः क्रिया के बिना ज्ञान निरर्थक माना जाता है और बिना ज्ञान के कोई भी क्रिया फलीभूत नहीं होती। इसलिए आत्म-साधना के लिए भी क्रिया के पूर्व का ज्ञान होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना गया है। जैनागमों में स्पष्ट
१ शास्त्रवार्तासमुच्चय, १/२१ २. इहलौकिक व पारलौकिक भोगों की आकांक्षा सम्यग्दर्शन में अतिचार (दोष) पैदा करती है। फलविशेष की इच्छा रूप
'निदान' को आर्तध्यान में परिगणित किया गया है, जिससे दुर्गति होती है। इस दृष्टि से शास्त्रों में ऐहिक व पारलौकिक लाभ को दृष्टि में रखकर तप करना वर्जित बताया गया है। न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाऽप्यावश्यकादिका ।
नियमा ध्यानशुद्धत्वाद् यदन्यैरप्यदः स्मृतम् ।। - अध्यात्मसार, ५/१५/७ ४. (क) यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येय च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।। नैव तस्य कृतेनाऽर्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।। - गीता ३/१७,१८ उदधृत : अध्यात्मसार, ५/१५/८ (ख) मोक्षप्राभृत, १६.८३ (ग) आत्माभ्यासे रतिं कुर्यात् । - योगशास्त्र, १२/१७ देहनिर्वाहमात्रार्था याऽपि भिक्षाटनादिका । क्रिया सा ज्ञानिनोऽसंगान्नेव ध्यानविघातिनी ।। - अध्यात्मसार, ५/१५/११ रत्नशिक्षा दृगन्या हि तन्नियोजनदृग्यथा । फलभेदात्तथाचारक्रियाऽप्यस्य विभिद्यते ।। - अध्यात्मसार, ५/१५/१२ ध्यानार्था हि क्रिया सेयं प्रत्याहृत्य निज मनः ।
प्रारब्धजन्मसंकल्पादात्मज्ञानाय कल्पते ।।- वही, ५/१५/१३ ८. ज्ञानसार ६/२. ३: अध्यात्मोपनिषद्, ३/१३. १४
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