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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
में अवशिष्ट वृत्तियों के बीज रूप सूक्ष्म संस्कार भी जल जाते हैं। इसे ही पातञ्जलयोग में 'धर्ममेघसमाधि' कहा गया है। अन्य लोग इसे अमतात्मा. भवशत्र, शिवोदय, सच्चिदानन्द आदि विशेषणों से विभूषित करते हैं। यही सर्वोत्कृष्ट निर्वाण है।' महर्षि पतञ्जलि ने जिस योग (समाधि) को सम्प्रज्ञात कहा है वही जैन शास्त्रानुसार निरालम्बन ध्यान है। जैन परिभाषा में जो केवलज्ञान' है, वह पातञ्जलयोग की परिभाषा में 'असम्प्रज्ञातयोग' के नाम से अभिहित है।२। __ मोक्ष के साधनभूत उपर्युक्त स्थानादि पांच योगों का अनुष्ठान सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होने पर ही सम्भव हो सकता है, क्योंकि क्रियारूप अथवा ज्ञानरूप चारित्र मोहनीयकर्म के क्षयोपशम अर्थात शिथिल होने पर अवश्य प्रकट होता है। इसीलिए चारित्री को ही योग का अधिकारी माना गया है।
यही कारण है कि आ० हरिभद्र ने योगबिन्दु में अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय रूप पांच योगों की प्राप्ति चारित्र में ही मानी है। उपा० यशोविजय ने अध्यात्मादि पांच योगों को स्थानादि पांच योगों में समाविष्ट किया है।
उपर्युक्त पंचविध योग की पातञ्जलयोगसूत्र से तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैनसम्मत 'स्थानयोग' महर्षि पतञ्जलि सम्मत तृतीय अंग 'आसन' ही है। इसकी विशेषता यह है कि यह स्थानयोग' आसन की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्थानादि पंचविध योग के भेद एवं उपभेद
उक्त स्थानादि योगों की सिद्धि जिस क्रम से होती है, तदनुरूप इनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद किये गये हैं। सर्वप्रथम जीव में उक्त क्रियाओं के प्रति रुचि जागृत होती है। तत्पश्चात् वह उनमें कुशलतापूर्वक प्रवृत्ति करता है। अभ्यास करते करते उनमें स्थिरता प्राप्त कर लेता है। और अन्त में उन क्रियाओं पर उसे सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसी क्रम से आ० हरिभद्रसूरि एवं उपा० यशोविजय ने स्थानादि प्रत्येक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि आदि चार-चार भेद किये हैं। जिस अवस्था में स्थान आदि योगों का अभ्यास करने में रत साधकों को कथा सुनकर प्रीति होती हो तथा ऐसा उल्लास प्रकट हो, जिससे विधिपूर्वक अनुष्ठान करने वालों के प्रति बहुमानपूर्वक विविध प्रकार के भाव पैदा होते हों, वह अवस्था ‘इच्छायोग' है। जिस अवस्था में वीर्योल्लास की प्रबलता होने से उपशमभावपूर्वक स्थानादि योगों
१. (क) धर्ममेघोऽमृतात्मा च भवशक्रशिवोदयः ।
सत्त्वानन्दः परश्चेति योज्योऽत्रैवार्थयोगतः ।। - योगबिन्दु, ४२२ (ख) 'ततश्च' केवलज्ञानलाभादनन्तरं च 'अयोगयोगः' वृत्तिबीजदाहायोगाख्यः समाधिर्भवति, अयं च 'धर्ममेघः' इति
पातञ्जलैर्गीयते. अमृतात्मा' इत्यन्यैः, 'भवशत्रुः इत्यपरैः, "शिवोदयः' इत्यन्यैः 'सत्त्वानन्दः इत्येकैः, 'परश्च' इत्यपरैः ।
"क्रमेण' उपदर्शितपारम्पर्येण ततोऽयोगयोगात 'परम' सर्वोत्कृष्टफलं निर्वाणं भवति। - योगविंशिका, १६, यशो० वृ० २. ततश्च 'केवलमेव' केवलज्ञानमेव भवति । अयं चासम्प्रज्ञातः समाधिरिति परैर्गीयते. ... । वही
One reaches the consummation of these activities in the following order. At the outset one develops an interest in these activities, and comes to have a will for practising them. Then he takes an active part in them and begins actual practice. Gradually he becomes steadfast in them and achieves stability. Finally he gains mastery over the activities. Each of the five activities is mastered in this order.
-- Studies in Jain Philosophy, p. 294. (क) इक्किक्को य चउद्धा इत्थां पुण तत्तओ मुणेयव्यो ।
इच्छापवित्तिथिरसिद्धि भेयओ समयनीई ए || - योगविंशिका, ४ (ख) कृपा निर्वेदसंवेगप्रशमोत्पत्तिकारिणः ।
भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्धयः।। -ज्ञानसार, २७/३ (क) तज्जुत्तकहापीईइ संगया विपरिणामिणी इच्छा ।
सव्वत्थुवसमसारं, तप्पालणमो पवत्ती उ ।। - योगविंशिका, ५ (ख) योगविंशिका, गा०३ पर यशो० वृ०
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