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योग का स्वरूप एवं भेद
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आलम्बनयोग के अधिकारी अधिक से अधिक छठे गुणस्थान वाले होते हैं। परन्तु अनालम्बनयोग के अधिकारी सातवें से १२वें गुणस्थान तक के स्वामी होते हैं। सप्तम गुणस्थान में ध्यान अपनी प्रारम्भिक अवस्था में होता है। इस अवस्था में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप का अनुभव करने के लिए बहुत उत्कंठित होता है। अतः वह अभ्यास करते-करते क्षपक श्रेणी पर चढ़कर आध्यात्मिक विकास के ८वें चरण पर पहुँच जाता है। इस स्थिति में ध्यान अपेक्षाकृत अधिक स्थिर होता है। आत्मा संसार से पूर्णतः पृथक् हो जाता है और यथार्थ स्वरूप का अनुभव करने के लिए गंभीरतापूर्वक आगे बढ़ता है। वह तब तक विश्राम नहीं करता, जब तक उसे पूर्णता प्राप्त नहीं हो जाती। ऐसे जीव की स्थिति ६३ गुणस्थान में होती है। इस अवस्था में आत्मा पुनः क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर १२वें गुणस्थान में पहुँचने के लिए प्रयत्न करता है। १२वें गुणस्थान में पहुंचने पर उसे उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह वह अवस्था है, जिसमें आत्मा अमूर्त विषयों पर ध्यान एकाग्र करता है। अभी उसे अमूर्त विषयों का अनुभव नहीं हुआ होता। परन्तु उसमें उन विषयों का अनुभव करने की तीव्र आध्यात्मिक इच्छा होती है। यही अनालम्बनयोग है। इस अवस्था में जीव में आत्म-अनुभव का प्रयत्न जारी रहने से किसी भी ध्येय का ध्यान नहीं होता। यही कारण है कि ध्यान बिना किसी आलम्बन के होता है। आ० हरिभद्र एवं उपा० यशोविजय ने उक्त अवस्था में स्थित साधक की धनुर्धारी व्यक्ति से, क्षपक श्रेणी की धनुष से, आत्म-अनुभव की ध्येय से और ध्यान की बाण से तुलना की है। जब बाण के छूटते ही लक्ष्यवेध रूप परमात्मतत्त्व का प्रकाश होता है, वह अवस्था अनालम्बनयोग की चरमसीमा मानी गई है।
उक्त परमात्मतत्त्व का प्रकाश ही केवलज्ञान है, जो अनालम्बनयोग का फल है। आत्मतत्त्व के साक्षात्कार से पूर्व जब तक उसकी प्रबल आकांक्षा होती है, तब तक का विशिष्ट प्रयत्न निरालम्बन ध्यान है। परन्तु 'केवलज्ञान' होने पर आत्मतत्त्व के साक्षात्कार की इच्छा न रहने से अनालम्बन ध्यान न हो, तो भी आत्मतत्त्व विषयक केवलज्ञान रूप प्रकाश को 'सालम्बनयोग' कहा जा सकता है।
केवलि-अवस्था प्राप्त होने के पश्चात् जब तक योग-निरोध के लिए प्रयत्न नहीं किया जाता, तब तक की स्थिति को एक प्रकार की विश्रान्ति मात्र कह सकते हैं, ध्यान नहीं, क्योंकि ध्यान वह विशिष्ट प्रक्रिया है, जो 'केवलज्ञान' के पूर्व या योगनिरोध के समय होती है। निरालम्बन ध्यान के सिद्ध हो जाने पर साधक मोह सागर को पार कर लेता है। यही क्षपक श्रेणी की सिद्धि है। क्षपकश्रेणी से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। 'केवलज्ञान' से क्रमशः 'अयोग' नामक योग तथा परम निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस अवस्था
१. (क) सामर्थ्ययोगतो या तत्र दिदृक्षेत्यसंगशक्त्यादया ।
सानालम्बनयोगः प्रोक्तस्तदर्शनं यावत् ।। - षोडशक, १५/८ (ख) षोडशक, यशोभद्रवृत्ति एवं यशोविजयवृत्ति १५/८ (ग) 'तत्र' परतत्वे द्रष्टुमिच्छादिदृक्षा 'इति' एवंस्वरूपा-असंगशक्त्यानिरभिष्वंगाविच्छन्नप्रवृत्त्या आट्या-पूर्णा 'सा'
परमात्मदर्शनेच्छा अनालम्बनयोगः, परतत्त्वस्यादर्शन-अनुपलम्भं यावत्, परमात्मस्वरूपदर्शने तु केवलज्ञानेनानालम्बनयोगो न भवति, तस्य तदालम्बनत्यात्। अलब्धपरतत्त्वस्तल्लाभाय ध्यानरूपेण प्रवृत्तो ह्यनालम्बनयोगः। - .योगविंशिका,
गा० १६ पर यशो० वृ० २. तत्राप्रतिष्ठितोऽयं यतः प्रवृत्तश्च तत्त्यतस्तत्र ।
सर्वोत्तमानुजः खलु तेनानालम्बनो गीतः ।। - षोडशक, १५/६ (क) द्रागस्मात्तदर्शनमिषुपातज्ञातमात्रतो ज्ञेयम् ।
एतच्च केवलं तज्ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः ।। - वही, १५/१० (ख) योगविंशिका, गा० १६ पर यशो० वृ० (क) एयम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेव ।
तत्तो अजोगजोगो, कमेण परमं च निव्वाणं ।। - योगविंशिका, २० (ख) योगविंशिका, गा०२० पर यशोविजयवृत्ति
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