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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
परोपकार को ही सार मानना.. तथा अपनी वर्तमान धार्मिक भूमिका के कर्तव्य में पाप का वर्जन करना 'प्रणिधान' है। २. प्रवृत्ति' (चंचलतारहित तीव्रप्रयत्न)
वर्तमान धार्मिक भूमिका के उद्देश्य से निर्दिष्ट योग-साधना में चंचलतारहित तीव्रप्रयत्न को 'प्रवृत्ति' कहा गया है।
३. विघ्नजय (परिषहों एवं मनोविश्रम में स्थिरता) ___ धार्मिक प्रवृत्ति में बाधक भूख-प्यास आदि परिषह, शारीरिक रोग एवं मनोविभ्रम, तीनों पर विजय प्राप्त करना 'विघ्नजय' है। ४. सिद्धि' (सद्गुणी स्वभाव, गुरुजनों के प्रति विनय, अपने से निम्न श्रेणी के लोगों के प्रति
दया, अनुकम्पा आदि) - ऐसी तात्त्विक धार्मिक भूमिका को प्राप्त करना, जिसमें गुरुजनों के प्रति आदर भाव हो, समान श्रेणी वालों के प्रति उपकार की भावना हो, तथा निम्न श्रेणी वालों के प्रति दया, दान तथा अनुकम्पा की भावना हो, वह 'सिद्धि' है। ५. विनियोग (स्वपरकल्याण की प्रवृत्ति का निरवच्छिन्न प्रवर्तन) __ 'विनियोग' साधना की आत्मसंस्कारपूर्ण ऐसी स्थिति है, जहाँ सर्वोत्कृष्ट धर्मस्थान – मुक्ति की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। ___ उक्त आशय रूप पांच मनोभावों के अभाव में बाह्य-चेष्टा निर्जीव क्रिया तुल्य हो जाती है. इसलिए कोई भी धार्मिक क्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व प्रणिधानादि पांच आशयों से चित्तशुद्धि करना आवश्यक है। इन पांच आशयों से विशुद्ध धर्मव्यापार को ही मोक्ष का हेतु होने से 'योग' कहा जाता है। (ग) निश्चय-व्यवहारयोग
जैन आध्यात्मिक क्षेत्र में किसी पदार्थ का निरूपण दो दृष्टियों से किया जाता है। वे दो दृष्टियाँ
१. (क) तत्रैव तु प्रवृत्तिः शुभसारोपायसङ्गतात्यन्तम् ।
अधिकृतयत्नातिशयादौत्सुक्यविवर्जिता चैव ।। - षोडशक. ३/८ (ख) प्रवृत्तिः प्रकृतस्थाने यत्नातिशयसंभवा ।
अन्याभिलाषरहिता चेतः परिणतिः स्थिरा || - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १०/१२ २. (क). विध्नजयस्त्रिविधः खलु विज्ञेयो हीनमध्यमोत्कृष्टः ।
मार्ग इह कण्टकज्वरमोहजयसमः प्रवृत्तिफलः ।। - षोडशक ३/६ (ख) बाह्यान्ताधिमिथ्यात्वजयव्यंग्याशयात्मकः |
कंटकज्वरमोहाना जयैर्विघ्नजयः समः ।।-द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिंका. १०/१३ (क) सिद्धिस्तत्तद्धर्मस्थानावाप्तिरिह तात्त्विकी ज्ञेया ।
अधिके विनयादियुता हीने च दयादिगुणसारा ।। - षोडशक. ३/१० (ख) सिद्धिस्तात्त्विकधर्माप्तिः साक्षादनुभवात्मिका ।
कृपोपकारविनयान्विता हीनादिषु क्रमात् ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १०/१४ (क) सिद्धेश्चोत्तरकार्य विनियोगोऽवन्ध्यमेतदेतस्मिन् ।
सत्यद्वयसंपत्त्या सुन्दरमिति तत्परं यावत् ।। - षोडशक. ३/११ (ख) अन्यस्य योजनं धर्मे विनियोगस्तदुत्तरम् ।
कार्यमन्वयसंपत्त्या तदवन्ध्यफलं मतम् ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १०/१५ ५. एतैः प्रणिधानादिभिः आशययोगेस्तु बिना धर्माय न क्रिया बाह्यकायव्यापाररूपा। - वही. १०/१६ पर स्वो वृ०
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