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पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य
एक बार पं० नयविजयजी घूमते हुए पाटण के निकट कंणगेर नामक गांव में पहुँचे। वहाँ (उपाश्रय में) नयविजयजी जसवन्त कुमार के मुख पर तेजस्विता, विनयं एवं विवेकपूर्ण व्यवहार, बुद्धिमत्ता, चातुर्य
और धर्मानुराग को देखकर बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने जसवन्त में भविष्य के एक महान् रत्न का दर्शन किया।
गुरुजी ने संघ की उपस्थिति में जसवन्त को जैन शासन के चरणों में समर्पित करने की मांग की। पुत्र की योग्यता से प्रभावित होकर माता ने देश व धर्म के उज्ज्वल भविष्य की कामना से गुरुजी की आज्ञा को स्वीकार किया और अपने अति प्रिय बेटे को उत्साहपूर्वक शुभ मुहूर्त में गुरु नयविजयजी को समर्पित कर दिया। इस प्रकार जैनशासन के भावी नवरत्न का बीजारोपण हुआ।
छोटे से गांव में ऐसे योग्य बालक को दीक्षा देना कम महत्वपूर्ण न था। अतः जसवन्त कुमार की भागवती दीक्षा शुभमुहूर्त में "अणहिलपुर पाटन" नामक प्रसिद्ध शहर में बड़ी धूमधाम से हुई।
जैन श्रमण-परम्परा के नियमानुसार गृहस्थाश्रम का नाम बदल कर जसविजय (जो बाद में यशोविजय बन गया) और इनके भाई पद्मसिंह का नाम पद्मविजय रखा गया। इन दोनों का समस्त जनता ने उत्साहपूर्वक अभिनन्दन किया।
जैन मुनिचर्या के नियमानुसार साधक को पहले छोटी दीक्षा दी जाती है, बाद में बड़ी । अतः छोटी दीक्षा के पश्चात् इनकी पूर्व योग्यता की जाँच कर गुरु द्वारा उन्हें बड़ी दीक्षा दी गई। तदन्तर गुरु नयविजयजी और यशोविजयजी अहमदाबाद पहुंचे। वहाँ वि०सं० १६६६ में संघ के समक्ष जसविजय जी ने आठ अवधान किये। उनकी विलक्षण बुद्धि से प्रभावित होकर वहाँ के धनजी सुरा नामक प्रसिद्ध व्यापारी ने इन्हें उच्चशिक्षा प्राप्त करवाकर दूसरा हेमचन्द्र बनाने की इच्छा व्यक्त की। पं. नयविजय की आज्ञा से यशोविजय को अध्ययन के लिए काशी भेज दिया गया। कहा जाता है कि उस व्यापारी ने इस कार्य के लिए दो हजार चांदी के दीनार दान में दिये थे।
गुरु नयविजयजी अपने शिष्य यशोविजय को लेकर सरस्वती धाम काशी आये। वहाँ यशोविजय ने एक प्रसिद्ध विद्वान् श्री भट्टाचार्य (नाम अज्ञात) से तीन वर्ष तक न्यायशास्त्रों का अध्ययन किया। तीव्रस्मृति, अपूर्वग्रहणशक्ति व कण्ठस्थशक्ति के कारण व्याकरण, तर्क व न्याय आदि शास्त्रों की विविध शाखाओं में पारंगत हो गये और दर्शनशास्त्रों के गहन अध्ययन से उनकी प्रसिद्धि षड्दर्शनवेत्ता के रूप में हो गई। नव्यन्याय के तो वे बेजोड़ विद्वान बने ही, साथ ही शास्त्रार्थ तथा वादविवाद करने में भी उनकी प्रतिभा के समकक्ष कोई अन्य नहीं था।
कहा जाता है कि काशी में गंगातट पर रहकर यशोविजयजी ने “ऐंकार मन्त्र द्वारा सरस्वती का जप किया। परिणामस्वरूप माता शारदा ने प्रसन्न होकर ऐसा वरदान दिया, जिसके प्रभाव से यशोविजयजी काव्य और भाषा के क्षेत्र में कल्पवृक्ष के समान सफल सार्थक यशस्वी बन गये। यशोविजय के ग्रन्थ की पहचान प्रारम्भ में प्रयुक्त “ऐं पद से होती है।
एक बार काशी के राजदरबार में अनेक विद्वानों की उपस्थिति में एक अजैन विद्वान के साथ किए गये शास्त्रार्थ में यशोविजयजी विजयी हए। इनके प्रगाढ़ पाण्डित्य एवं प्रतिभा से प्रभावित होकर काशी
१. द्रष्टय्य : श्रीमानविजयकृत धर्मसंग्रह, प्रशस्तिपद्य; द्वात्रिंशतद्वात्रिंशिका, प्रशस्तिपद्य २. सर्तकर्कशधियाऽखिलदर्शनेषु मूर्धन्यतामधिगतास्तपागच्छधुर्याः ।
काश्यां विजित्य परयूथिकपर्षदोऽग्रया, विस्तारितप्रवरजैनमतप्रभावाः ।। - धर्मसंग्रह, प्रशस्तिपद्य, १० ३. सारद सार दया करो, आपो वचन सुरंग।
तू तूठी मुज उपरि, जाप करत उपगंग।। - जम्बूस्वामीरास, प्रथम अधिकार, पद्य । ४. ऐंकारजापवरमाप्य कवित्ववित्तववांछासुरद्रुमपगंगमभंगरंगम ।-न्यायखण्डनखण्डखाद्य, पद्य १
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