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भाष्यकार व्यास ने अस्मिता का अर्थ स्पष्ट करते हुए अस्मिता को एकात्मिका संविद्' कहा है। विज्ञानभिक्षु के अनुसार, व्यासभाष्य में उल्लिखित 'एक' शब्द 'केवल' अर्थ का वाचक है। इसप्रकार अस्मिता अथवा एकात्मिका का अर्थ होगा, वह संवित् जिसमें एक आत्मा ही विषय के रूप में विद्यमान हो । चित्त की वह अवस्था जिसमें चित्त की एकाग्रता इतनी बढ़ जाये कि अस्मिता में धारण करने से उसका यथार्थ रूप साक्षात् होने लगे, उसे 'अस्मितानुगतसम्प्रज्ञातसमाधि' कहते हैं। इस अवस्था में चित्त में आत्मा विषयक 'मैं हूँ' (अस्मि) इससे भिन्न कोई अन्य ज्ञान नहीं रह जाता है। अर्थात् 'अस्मितानुगतसम्प्रज्ञातयोग' में भी चित्त समस्त स्थूल सूक्ष्म विषयों से निरुद्ध होकर केवल आत्म मात्र का साक्षात्कार करता है । 'अस्मि' वृत्ति
की सूक्ष्मता में पुरुष और चित्त में भिन्नता उत्पन्न करने वाली विवेकख्याति रूपी वृत्ति का उदय होता है । जिस व्यक्ति में विवेकख्याति रूप वृत्ति का उदय होता है, वह सर्व पदार्थों का अधिष्ठाता तथा सर्व पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञाता हो जाता है । ४
उक्त चारों प्रकार के सम्प्रज्ञातयोग में एक क्रमिक तारतम्य है, अर्थात् इनका क्रमशः अभ्यास किया जाता है । पूर्व-पूर्व अवस्था में उत्तरोत्तर अवस्था के विषय का स्पष्ट चिन्तन रहता है, जबकि उत्तरवर्ती अवस्था में पूर्व- पूर्व अवस्था के विषय का चिन्तन छूटता जाता है।' यथा प्रथम वितर्कानुगतयोग वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता इन चारों आलम्बनों से युक्त होता है। द्वितीय विचारानुगतसम्प्रज्ञातयोग में वितर्क का आलम्बन छूट जाता है और विचार, आनन्द व अस्मिता ये तीन आलम्बन शेष रह जाते हैं। इसी प्रकार तृतीय आनन्दानुगतसम्प्रज्ञातयोग में वितर्क और विचार दोनों आलम्बन समाप्त हो जाने से आनन्द और अस्मिता ही शेष रह जाते हैं। चतुर्थ एवं अन्तिम अस्मितानुगतसम्प्रज्ञातयोग में आनन्द का भी त्याग कर दिया जाता है। केवल अस्मिता का ही आलम्बन शेष रहता है। ये चारों प्रकार के सम्प्रज्ञातयोग सालम्बन तथा सबीज' हैं क्योंकि इन चारों में किसी न किसी ध्येय रूप बीज का आलम्बन विद्यमान रहता है।
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सम्प्रज्ञातयोग की प्रत्येक अवस्था में अभ्यास की वृद्धि के साथ-साथ जैसे-जैसे योगी कैवल्य-मार्ग पर बढ़ता जाता वैसे-वैसे उस विशिष्टयोग में भी उत्तरोत्तर प्रकाशवृद्धि युक्त प्रज्ञाएँ उत्पन्न होती चली जाती हैं, जिनके प्रकाश में योगी योग की निम्नतर अवस्था से उच्चतर अवस्था की ओर निरन्तर अग्रसर रहता है । सम्प्रज्ञातयोग की उच्चतम अवस्था में चित्त से प्रतिबिम्बित पुरुष का साक्षात्कार होता है, और ऐकान्तिक सत्य स्वरूप ऋतम्भराप्रज्ञा का बोध होता है। इसके द्वारा पदार्थ के विशेष स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है इसलिए इसे आगम एवं अनुमान प्रमाण से श्रेष्ठ माना गया है। "
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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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एकात्मिका संविदास्मिता ।
एक शब्दोऽत्र केवलवाची।
योगवार्तिक, ५६
सा चात्मना ग्रहीत्रा सह बुद्धिरेकात्मिका संवित्। - तत्त्ववैशारदी, पृ० ५५
व्यासभाष्य, पृ० ५६
सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च । - पातञ्जलयोगसूत्र, ३ / ४६ उच्चारोहे क्रमिकसोपानपरम्परावत् । - नागेशभट्टवृत्ति, पृ० २१
(क) तत्रैकैकस्यास्त्याग उत्तरोत्तरा इति चतुरवस्थोऽयं सम्प्रज्ञातः समाधिः । - भोजवृत्ति, पृ० २१
(ख) पूर्वपूर्वभूमिकासूत्तरोत्तरभूमिविषयस्य. परित्यागं विदधाति । - योगवार्तिक, पृ० ५७
तत्र प्रथमश्चतुष्ट्यानुगतः समाधिः सवितर्कः । द्वितीयो वितर्कविकलः सविचारः । तृतीयो विचारविकलः सानन्दः । चतुर्थस्तद्विकलोऽस्मितामात्रः इति । व्यासभाष्य, पृ० ५६-६०
सर्व एते सालम्बनाः समाधयः । - वही, पृ० ६०
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६.
ता एव सबीजः समाधिः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १ / ४६
१०. पातञ्जलयोगसूत्र, १ / ४८
११.
श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् । - वही १/४६
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