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Niyamasāra
नियमसार
निमित्त। सम्यक्त्व की उत्पत्ति का बहिरङ्ग निमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरङ्ग निमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वप्रकृति एवं अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियों का उपशम, क्षय और क्षयोपशम का होना है। बहिरङ्ग निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती भी है और नहीं भी होती परन्तु अन्तरङ्ग निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि नियम से होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान तो मोक्ष के लिये हैं ही, सुन, सम्यक्चारित्र भी मोक्ष के लिये है इसलिये मैं व्यवहार नय और निश्चय नय से सम्यक्चारित्र को कहूँगा। भावार्थ - मोक्ष प्राप्ति के लिये जिस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान आवश्यक कहे गये हैं उसी प्रकार सम्यक्चारित्र को आवश्यक कहा गया है इसलिये यहाँ व्यवहार और निश्चय दोनों नयों के आलम्बन से सम्यक्चारित्र को कहूँगा। व्यवहार नय के चारित्र में व्यवहार नय का तपश्चरण होता है और निश्चय नय के चारित्र में निश्चय नय का तपश्चरण होता है। भावार्थ - व्यवहार नय से पाप-क्रिया के त्याग को चारित्र कहते हैं इसलिये इस चारित्र में व्यवहार नय के विषयभूत अनशन-ऊनोदर आदि को तप कहा जाता है। तथा निश्चय नय से निजस्वरूप में अविचल स्थिति को चारित्र कहा है इसलिये इस चारित्र में निश्चय नय के विषयभूत सहज-निश्चयनयात्मक परमभाव-स्वरूप परमात्मा में प्रतपन को तप कहा है।
The faith, without perverse comprehension, on the substances of Reality is right faith (samyaktva or samyagdarśana), and the knowledge of these, without imperfections of doubt (samsaya), delusion (vimoha), and misapprehension (vibhrama) is right knowledge (samyagjñāna).
Or, faith on the substances of Reality without the faults of wavering (cala), contamination (malina), and
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