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Niyamasara
भेद - अभ्यास द्वारा निश्चय - चारित्र
The real right conduct -
एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ॥८२॥
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इस प्रकार का भेद-अभ्यास होने पर जीव मध्यस्थ होता है और उस मध्यस्थभाव से चारित्र होता है। आगे उसी चारित्र को दृढ़ करने के निमित्त से मैं प्रतिक्रमण आदि को कहूँगा ।
On acquisition of the power-of-discernment – bhedavijñāna – the soul adopts equanimity (madhyasthabhāva, sāmya); the adoption of equanimity is (right) conduct (căritra). With the object of strengthening conduct (căritra), I shall describe repentance (pratikramana), etc.
EXPLANATORY NOTE
ācārya Kundakunda's Pravacanasāra:
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणो हु समो ॥१-७॥
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नियमसार
निश्चयकर अपने में अपने स्वरूप का आचरणरूप जो चारित्र है वह धर्म है अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव है वह धर्म है। इस कारण अपने स्वरूप के धारण करने से चारित्र का नाम धर्म कहा गया है। जो धर्म है वही साम्यभाव है, ऐसा श्रीवीतरागदेव ने कहा है। वह साम्यभाव क्या है? मोह - क्षोभ रहित - उद्वेगपने ( चंचलता ) से रहित आत्मा का जो परिणाम है वही साम्यभाव है।
1 - मोह - दर्शनमोह / मिथ्यात्व, क्षोभ - चारित्रमोह / राग-द्वेष
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