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Niyamasāra
नियमसार
प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं की सार्थकता - The relevance of activities, like repentance - पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्टिदो होदि ॥१५२॥ प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को, अर्थात् निश्चय चारित्र को, (निरन्तर) करता रहता है इसलिये वह श्रमण वीतराग चारित्र में आरूढ़ है।। भावार्थ - यहाँ प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं की सार्थकता बतलाते हुए कहा गया है कि जो श्रमण प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा आलोचना आदि क्रियाओं को करता रहता है उसी के निश्चय चारित्र होता है और उस निश्चय चारित्र के द्वारा ही साधु वीतराग चारित्र में आरूढ़ होता है।
The ascetic (muni, śramaņa), established incessantly in real (niscaya) conduct (căritra) through activities like repentance (pratikramaņa), ascends the stage of passionless conduct-without-attachment (vītarāga caritra).
EXPLANATORY NOTE
Acārya Kundakunda's Samayasāra:
णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पि जो पडिक्कमदि । णिच्चं आलोचेयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा ॥१०-७९-३८६॥
जो आत्मा नित्य प्रत्याख्यान करता है, नित्य ही जो प्रतिक्रमण करता है, जो नित्य आलोचना करता है, वह आत्मा निश्चय चारित्र है।
The Self who is always engaged in renunciation (pratyākhyāna), who is always engaged in repentance (pratikramana), and who is always engaged in confession (ālocanā), is the real conduct.
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