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शुद्धभावाधिकार
3 - THE PURE THOUGHT-ACTIVITY रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) के स्वरूप का कथन - The 'Three Jewels' of right faith, knowledge and conduct -
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ५१॥ चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ॥५२॥ सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा । अन्तरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं । ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥५४॥ ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं । णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥५५॥
विपरीत अभिनिवेश (अभिप्राय) से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है तथा संशय (संदेह), विमोह (अनध्यवसाय) और विभ्रम (विपर्यय) से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। (अथवा) इन दोषों - चल, मलिन और अगाढ़ - से रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है और हेय और उपादेय तत्त्वों का जाननेरूप भाव होना सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्त्व का (बाह्य) निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तथा अन्तरङ्ग निमित्त दर्शनमोहनीय कर्म आदि का क्षय कहा गया है। भावार्थ - निमित्त कारण के दो भेद हैं एक बहिरङ्ग निमित्त और दूसरा अन्तरङ्ग
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