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मूकमाटी-मीमांसा ::li उद्दीपन अचेतन का भी । जीवन और संसार के कलात्मक उद्रेखण में दोनों का ही प्रसंग आता है। प्रात:काल और सरिता वर्णन
ग्रन्थारम्भ में प्रात:काल और सरिता के ही वर्णन को लें। भावना और कल्पना की रंगीनी काव्योचित आकर्षण पैदा करती है। रचयिता कलाकार भी है और सन्त भी है । उसे इस बात का ध्यान है कि सांसारिक उद्वेग, व्यथा, वेदना और वैराग्य की माटीगत भावना के उद्दीपक रूप में प्रकृति सहायिका होकर पीठिका प्रस्तुत करे । ऊपर-नीचे चतुर्दिक नीरवता छाई हुई है, ऐसे में साधक का मन शान्त रहता है। माया का ब्राह्म प्रहर है । उषा अपनी तरुणिमा में है। भानु और प्राची का दृश्य बिम्बविधान अनुभवैकगम्य है। यह कथन समासोक्ति के आलंकारिक आवरण में है। प्रस्तुत तन्द्रिल भानु की अरुणिम परिवेश में उदयोन्मुखता है और अप्रस्तुत माँ की मार्दव-निर्भर-गोद में लाल चादर ओढ़े जागरणोन्मुख तन्द्रिल शिशु की अंगड़ाई । इसी प्रकार प्रस्तुत है अरुणिम प्राची पर अप्रस्तुत है सिन्दूर-निर्भर-सीमन्त वाली गदराई सिंदूरी आभा की खुले माथ वाली तरुणी । इन अप्रस्तुत योजनाओं से लिपटी प्रकृति कितनी मनोरम है ! उधर निमीलनोन्मुख कुमुदिनी और सामने आता प्रभाकर और अप्रस्तुत रूप में उस बिम्ब की कल्पना करें जहाँ निर्लज्ज परपुरुष के कर-स्पर्श के भय से अपने में सिमटती कुलीना स्त्री परिदृश्य से ओझल होते हुए पति के प्रति उभरी हुई सराग-मुद्रा और अंग पर छिटके राजस पराग को ढंक रही हो । कमलिनी भी अर्धोन्मीलित है, जहाँ अप्रस्तुत यह कि वह कुमुदिनी परपुरुष की दर्शनीया प्रभा को भी नहीं देखना चाहती । इस पर अर्थान्तरन्यास यह कि ईर्ष्या पर कौन विजयी बन सका है, वह भी जीव के स्त्री पर्याय में ? यह तो अनहोनी है। यहाँ तिल-तुण्डलवत् दोनों अलंकरों की संसृष्टि' है, न कि सन्देह संकर, अंगांगिभाव संकर अथवा एकव्यंजकानुप्रवेश संकर । रात्रि का यह आलंकारिक लिबास कितना मनोहर है। यह सन्धि बेला है ! तारापति चन्द्र का अनुगमन तारिकाएँ कर रही हैं, उन्हें शंका है कि परपुरुष दिवाकर कहीं देख न ले। प्रात:कालीन मलयानिल मचल उठा है, गन्धवह गन्ध बिखेर रहा है । आत्मचेता माटी कुछ रहस्य, कुछ एकान्त व्यथा अपनी माँ से कहना चाहती है और परिवेश उसे अनुकूल लग रहा है :
"पर की नासा तक/इस गोपनीय वार्ता की गन्ध/ 'जा नहीं सकती !"(पृ.३) बगल में सरिता प्रवाहित है, पर वह अपनी धुन में गुनगुनाती अपने पति सागर की ओर गतिशील है। इस समय न निशाकर है न निशा, न दिवाकर है न दिवा और दिशाएँ भी अन्धी हैं। रहस्यवार्ता और एकान्त व्यथा के निवेदन के निमित्त इससे अधिक उपयुक्त परिवेश क्या हो सकता है ? अप्रस्तुत में प्राची की शृंगारिक मुद्रा का ऐसे में भाना थोड़ा अवश्य खटकता है, पर रचनाकार रचनाकार भी होता है, सन्त तो है ही। प्रकृति और सरिता का पुन: वर्णन
माटी की उद्दिष्ट महायात्रा के आरम्भिक क्षण में किया गया प्रकृति और सरिता का वर्णन कुछ ऐसा है जैसे वे सभी माटी का स्वागत कर रहे हों। प्रभात अपनी बहिन रात्रि को माटी के अभ्युदय से प्रसन्न होकर हर्षातिरेक से उपहार के रूप में कोमल कोपलों की हलकी आभा घुली हरिताभ की साड़ी देता है और इसे पहन कर जाती हुई वह अपने भाई प्रभात को सम्मानित करती है । इधर सरिता तट की ओर आती उन रजताभ लहरियों से, जो फूलों की अनगिन मालाओं का उपहास कर रही हों, माटी का चरण चूमती है । हँसमुख कलशी में फेन के व्याज से मानो दधि लेकर सरिता तट खड़ा है। तृण बिन्दुओं के व्याज से धरती के हृदय में माटी के लिए मानो करुणा उमड़ रही है और उसके अंग-अंग अपूर्व हर्षनिर्भर-पुलक से नाच उठे हों । चारों तरफ उल्लास और प्रकाश है, रोष प्रशान्त है, दोष का ह्रास और गुणों के कोष का उदय है । यात्रा का सूत्रपात है न ! इसलिए प्रकृति भी चारों ओर प्रसन्न और पुलकित-सी नज़र आ रही है।