Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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समयसुन्दर का जीवन-वृत्त
११
उस युग में मरुधर - प्रान्त के सांचोर क्षेत्र में प्रौढ़ अध्ययन के साधन उपलब्ध होना अत्यन्त
दुर्लभ थे।
हर्षनन्दन ने ऋषिमंडलवृत्ति में कवि को 'प्राग्वाट वंश - रत्ना-धर्म श्री मज्जिकासू : ' कहा है। इससे प्रतीत होता है कि कवि को इस साध्वी ने गृहस्थ - जीवन में संयम-पथ अंगीकार करने के लिए प्रेरणा दी होगी । अतः कवि ने दीक्षितावस्था से पूर्व अवश्य ही प्रारम्भिक धार्मिक प्रशिक्षण पाया होगा ।
समयसुन्दर को गृहस्थ-अवस्था में अपने गुरु सकलचन्द्रगणि का भी सत् संयोग मिला होगा, क्योंकि आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि ने स्वहस्त' से कवि को दीक्षा प्रदान कर अपने शिष्य - रत्न सकलचन्द्रगणि का शिष्य घोषित किया था, जबकि शिष्य होना चाहिए था दीक्षादाता का । गुरु के जीवित रहते हुए शिष्य का शिष्य होना तभी सम्भव है जब दोनों में अत्यधिक आत्मीय प्रेम हो । कवि ने यह स्वीकार किया है कि मुनिवर्य सकलचन्द्र की मुझ पर महती कृपा रही है और मैं उन्हीं की अनुकम्पा से आज असीम आनन्द पा रहा हूँ। वैसे कवि को प्रगुरु से भी स्नेह था । इसी कारण उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रगुरु का भी स्थान-स्थान पर श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। ३
उपाध्याय लब्धिमुनि का अभिमत है कि समयसुन्दर ने संसार को असार समझकर और वैराग्यपूर्वक लघु-वय में चरित्र अंगीकार किया था । वादी हर्षनन्दन ने अपने गुरुगीत में कहा है कि उन्होंने यौवन-अवस्था में संयम ग्रहण किया। हर्षनन्दन कवि के ही प्रथम शिष्य थे । अतः उनका उल्लेख लब्धिमुनि के उल्लेख की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक लगता है । इसका तात्पर्य यह है कि वे कवि कम से कम सोलह-सतरह वर्ष तक गृहस्थजीवन में रहे । यद्यपि उस युग में बालवय में विवाह हो जाया करते थे, किन्तु कवि के सन्दर्भ में ऐसी कोई भी जानकारी नहीं मिलती है, जिसके आधार पर उनके विवाह होने या न होने के सम्बन्ध में अधिकारपूर्वक कुछ कहा जा सके।
१. जिनचन्द्रसूरि संई हथे दीखिया सकलचन्द्र गुरु शीशो जी ।
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- देवीदास कृत समयसुन्दर गीत, नलदवदंती - रास, परिशिष्ट ई, पृष्ठ १३६
२. सकलचन्द्र मुनिवरु रे सुपसाय रे, समयसुन्दर आणंद करू रे । - कलश-गीतम्, समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृष्ठ १४
३. जिणचंद पय अरविंद सुन्दर, सार सेवा महुयरो ।
- श्री महावीरदेव - षट्कल्याणकगर्भित - स्तवनम्, स. कृ. कु. पृष्ठ २१५ ४. संसारासारतां ज्ञात्वा, वैराग्यरंगवासितः ।
लघु वयसि चारित्रं, सूरि पार्वाल्ललौ सकः ॥ - युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि - चरितम्, पृष्ठ ९०
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