________________ क्षयोपशम भाव चर्चा तरह पालन करनेरूप वर्तने में परिणमन करने) से परिणत जीव शुभोपयोग है; मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग - ऐसे 5 प्रत्ययरूप अशुद्धोपयोग से परिणत जीव अशुभ है। निश्चय-रत्नत्रयस्वरूप शुद्धोपयोग से परिणत जीव शुद्ध है - ऐसा जानना चाहिए। नोट - यहाँ शुभोपयोग की परिणति में सराग-सम्यक्त्वपूर्वक शुभकार्य करना कहा, न कि सम्यक्त्व रहित भी। तथा मुनि के शुभोपयोग में मूलोत्तर गुणों के अन्तर्गत गुप्ति आदि रूप निवृत्ति स्वरूप धर्म भी आते हैं। इतना विशेष है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्वादि पाँचों प्रत्यय नियम से रहते हैं, अतः वहाँ अशुभोपयोग नियम से रहा सिद्ध होता है। ___ (स) धवल पुस्तक 13 में स्पष्ट रूप से क्रियाकर्म (नमन, जिनस्तुति, वन्दना, आवर्त आदि उपासना) चौथे गुणस्थान से ही बताया है। (प्रस्तावना, पृ. 7, मूल ग्रन्थ पृ. 109, 110, 113, 123, 125, 144, 160, 180 - इन पृष्ठों में लिखा है कि यह शुभ क्रिया-कर्म, चौथे से सातवें में ही होता है, आगे-पीछे नहीं।) (द) प्रवचनसार गाथा 181 टीका में भी 1 से 3 गुणस्थान में अशुभोपयोग, 4 से 6 में शुभोपयोग तथा सातवें से शुद्धोपयोग कहा है। यथा - मिथ्यादृष्टि-सासादनसम्यग्दृष्टि-मिश्र-गुणस्थान-त्रये तारतम्येनाऽशुभपरिणामो भवति / अविरत-देशविरत-प्रमत्तसंयत-गुणस्थान-त्रये तारतम्येन शुभ-परिणामश्च भणितः / अप्रमत्तादि-क्षीणकषायाऽन्त-गुणस्थानेषु तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि (पूर्वम्) भणितः। अर्थात् प्रथम तीन गुणस्थानों में तारतम्य से अशुभ-परिणाम होता है। चौथे से छठवें में तारतम्य से शुभ-परिणाम होता है तथा आगे सातवें से बारहवें तक तारतम्य से शुद्धोपयोग होता है। ___ (क) यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी टीका में कहीं भी इन उपयोगों को गुणस्थानानुसार विभाजित नहीं किया, तथापि शुभोपयोग की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा है कि - विशिष्ट-क्षयोपशम-दशा-विश्रान्त-दर्शन-चारित्र-मोहनीय-पुद्गलाऽनुवृत्ति-परत्वेन परिगृहीत-शोभनोपरात्वात् परमभट्टारक-महादेवाधिदेव -