________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' “आदरणीय पण्डित रतनलालजी शास्त्री, इन्दौर सादर जय जिनेन्द्र! ..... पण्डित राजमलजी भोपाल का पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर के साथ हुए पत्र-व्यवहार की प्रतियाँ आपको भेज रहा हूँ। आशा है, इनका आलोडन करने के बाद मेरी शंकाओं का समाधान आप अवश्य करेंगे। ये शंकाएँ, मैंने पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर को भी सन् 1994 में भेजी थीं। उस समय उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था, इसलिए मुझे उनका जवाब प्राप्त नहीं हो सका, इस पत्र की भी अविकल प्रति आपको भेज रहा हूँ। कृपया आप इस विस्तृत शंका का समाधान विस्तार से किसी एक लेख के माध्यम से करेंगे तो अवश्य ही मेरा तथा मुमुक्षु समाज का बहुत लाभ होगा। 1. प्रवचनसार गाथा 157 की टीका में आता है - जो उपयोग, विशिष्ट क्षयोपशमदशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने तथा शुभ-उपराग का ग्रहण करने से, परमेष्ठी की श्रद्धा तथा सर्व जीवदया में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है। - क्या इसका अर्थ, यह कर सकते हैं कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय की क्षयोपशमदशा में जो देशघाति-स्पर्द्धकों का उदय रहता है, उसके निमित्त से होनेवाले उपराग को यहाँ ‘शुभोपयोग' कहा है? जैसे, क्षयोपशम-सम्यक्त्व को सराग-सम्यक्त्व या पण्डित टोडरमलजी के शब्दों में कहें तो जिससे समलतत्त्वार्थ-श्रद्धान कहा गया है, जहाँ देशघाति सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय के कारण सम्यक्त्व-सम्बन्धी चल-मल-अगाढ आदि दोष होते हैं, वह क्षयोपशम-सम्यक्त्व है; उसी प्रकार क्षयोपशम-चारित्र या सराग-चारित्र के अन्तर्गत होनेवाली देशघाति संज्वलन-कषाय के निमित्त से बुद्धिपूर्वक व्रतादि का राग होता है, उसी राग की यहाँ 'शुभोपयोग' संज्ञा है। ___2. उक्त सन्दर्भ में ही एक और महत्त्वपूर्ण आगम-प्रमाण (पंचास्तिकाय, गाथा 138 की आचार्य अमृतचन्द्रकृत समयव्याख्या टीका) पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत हो रहा है, जिसमें कहा गया है कि विशिष्ट कषाय का क्षयोपशम, अज्ञानी को भी होता है - इसका अर्थ क्या है?