________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग 135 (उपयोग) परम भट्टारक महादेवाधिदेव, परमेश्वर ऐसे अरहंत, सिद्ध और साधु के अतिरिक्त अन्य उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ।(तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 159 जो यह परद्रव्य के संयोग के कारणरूप से कहा गया अशुद्धोपयोग है, वह वास्तव में मन्द-तीव्र उदयदशा में रहनेवाले परद्रव्य के अनुसार परिणति के आधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, किन्तु अन्य कारण से नहीं; इसलिए यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्थ होऊँ और इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ, मैं परद्रव्य के अनुसार परिणति के आधीन न होने से, शुभ अथवा अशुभ -ऐसा जो अशुद्धोपयोग, उससे मुक्त होकर मात्र स्वद्रव्य के अनुसार परिणति को ग्रहण करने से जिसको शुद्धोपयोग सिद्ध हुआ है -ऐसा होता हुआ उपयोग के द्वारा आत्मा में ही सदा निश्चलरूप से उपयुक्त रहता हूँ। इस प्रकार मुझे जिसके कारण परद्रव्य का संयोग होता है, उसके विनाश का यह अभ्यास है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार गाथा 180 परिणामादो बंधो, परिणामो रागदोसमोहजुदो। असुहो मोहपदेसो, सुहो व असुहो हवदि रागो।। अर्थात् परिणाम से बन्ध है, (जो) परिणाम राग-द्वेष-मोहयुक्त है, उनमें से मोह और द्वेष अशुभ है और राग शुभ अथवा अशुभ (दोनों प्रकार का) होता है। प्रथम तो द्रव्यबन्ध, विशिष्ट परिणाम से होता है, परिणाम की विशिष्टता राग-द्वेष-मोहमयपने के कारण है। वह शुभ और अशुभपने के कारण द्वैत (दो भेद) का अनुसरण करता है, उसमें से मोह-द्वेषमयपने से अशुभपना होता है और रागमयपने से शुभपना तथा अशुभपना दोनों होता है, क्योंकि राग, विशुद्धियुक्त तथा संक्लेशयुक्त होने से दो प्रकार का होता है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 181 सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो, दुक्खक्खयकारणं समये / /