Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 165
________________ 160 क्षयोपशम भाव चर्चा परिणमाते हैं? परन्तु नहीं परिणमते हुए' को कोई कैसे परिणमा सकता है ? और स्वयं परिणमते हए' को अन्य परिणमानेवाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि 'न हि स्वतोऽसति शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते' अर्थात् वस्तु में जो शक्ति स्वतः न हो, उसे अन्य कोई कर नहीं सकता। इसी प्रकार न हि वस्तु-शक्तयः परमपेक्षन्ते' अर्थात् वस्तु की शक्तियाँ, पर की अपेक्षा नहीं रखतीं। (समयसार गाथा 116 से 125, आत्मख्याति) जो निमित्त को नहीं मानते, वे जीव तो मिथ्यादृष्टि हैं ही, किन्तु जो निमित्त को कर्ता मानते हैं, वे भी महा मिथ्यादृष्टि हैं। जो निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ही न माना जाए तो संसार और मोक्ष, दोनों के अभाव का प्रसंग आ जाएगा और यदि उनमें व्याप्य-व्यापक भाव से कर्ता-कर्म सम्बन्ध माना जाए तो जड़-चेतन में तन्मयपने का प्रसंग आएगा तथा यदि निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी एकदूसरे का कर्ता माना जाये तो नित्य-कर्तृत्व का (सर्व अवस्थाओं में कर्तृत्व होने का) प्रसंग आ जाएगा, अतः जीव-पुद्गल, अपने-अपने परिणामों (पर्यायों) के कर्ता सिद्ध हुए। (देखो, समयसार, गाथा 100, आत्मख्याति) इस परमार्थ-दृष्टि से निमित्त, उपादान के कार्य में अकिंचित्कर ही सिद्ध होता है। शंका - ‘अकिंचित्कर' शब्द का प्रयोग आप ही कर रहे हैं। अन्यत्र तो जिनागम में कहीं देखा नहीं। समाधान - आप प्रवचनसार, गाथा 45, 67 एवं 239 की तत्त्व-प्रदीपिका टीका देखें, वहाँ पर क्रमशः तीर्थंकरों (अरहन्तों) के पुण्य का विपाक को अकिंचित्कर कहा है; (गाथा 45 की उत्थानिका) आत्मा, स्वयं सुख-परिणाम की शक्ति वाला होने से विषयों को अकिंचित्कर कहा है (गाथा 67 की उत्थानिका) आत्मज्ञान-शून्य व्यवहार रत्नत्रय के यौगपद्य को भी अकिंचित्कर कहा है। (गाथा 239 की उत्थानिका) शिवाकांक्षी - ब्र. हेमचन्द्र जैन 'हेम' (भोपाल/देवलाली)

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