Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 177
________________ 172 क्षयोपशम भाव चर्चा विशेष आशा की जाती है कि वे भगवान महावीर के अपरिग्रहवाद को जीवन में अपनाएँगे।' बात ठीक है, भगवान महावीर ने त्याग का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण जगत् के सामने रखा है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में परिग्रह की कितनी निन्दा की है! दश धर्मों में आकिंचन्य धर्म उसी बात को कहता है, किन्तु जैसा प्रारम्भ में कहा है कि 'जब तक मनुष्य का मोह दूर नहीं होता, सच्चा त्याग भाव नहीं आता।' दशलक्षण पर्व, धार्मिक आचरण और शिक्षण की दृष्टि से बड़े महत्व का पर्व है; इसमें कषायों के त्याग पर विशेष जोर दिया गया है, किन्तु कुछ तो श्रोतागण सुनते-सुनते सुनने के भी अभ्यस्त हो जाते हैं और मात्र सुनने को ही सब-कुछ मान कर निश्चिन्त हो जाते हैं। सुनने के पश्चात् उस पर गम्भीरता से विचार नहीं करते, इससे शास्त्र-श्रवण का स्थायी लाभ नहीं होता; फिर भी जो सुनने से कतराते हैं, उनसे तो सुननेवाले श्रेष्ठ ही हैं। सुन कर जो संस्कार मन पर पड़ता है, वह कभी न कभी प्रबुद्ध होकर काम भी करता है। मनुष्य, बुराई को भले ही न छोड़ सके, किन्तु यदि उसके मन में बुराई के प्रति यह भावना पैदा हो जाती है कि बुराई नहीं करना चाहिए, तो यह भी कुछ कम लाभ नहीं है। अविरत सम्यग्दृष्टि, न तो जीव-हिंसा का त्यागी होता है न इन्द्रिय-संयमी अर्थात् असंयमी होता है; फिर भी उसके मानस में असंयम भाव के प्रति एक तीव्र अरुचि जागृत हो जाती है, जो उसकी विषयासक्ति को बन्ध के बदले में निर्जरा का कारण बनाती है; अतः कषायों को घटाने के लिए आत्म-स्वरूप का सतत विचार आवश्यक है, उसके बिना धर्म की सच्ची भावना जागृत नहीं होती। - सिद्धान्ताचार्य पण्डित श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी (सन्मति सन्देश, अगस्त-सितम्बर 1980 के लेख से साभार) -... . . .--.-. -AM A LININ

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