________________ 162 क्षयोपशम भाव चर्चा भावार्थ यह है कि जो दान लेनेवाले पुरुष, रत्नत्रय-युक्त होवें, वे पात्र कहलाते हैं; उनके तीन भेद हैं - उत्तम पात्र, मध्यम पात्र और जघन्य पात्र / इनमें सकलचारित्र के धारण करनेवाले सम्यक्त्व-युक्त मुनि उत्तम पात्र हैं, देशचारित्रयुक्त त्रसजीवों की हिंसा के त्यागी श्रावक मध्यम पात्र हैं और व्रतरहित सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। समीक्षा - जैनधर्म में सम्यग्दर्शन के बिना कोई सुपात्र नहीं होता / सम्यक्त्व, शील और व्रत से रहित जीव, अपात्र कहा गया है। जो व्रत, तप और शील से सम्पन्न है, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है, वह कुपात्र है। महाव्रत- धारी साधु भी यदि मिथ्यादृष्टि है तो वह कुपात्र है, पात्र नहीं। ___ वास्तव में पात्रता का आधार सम्यक्त्व ही है। सम्यग्दर्शन रत्न से विभूषित होने पर जीव, रत्नत्रय से अलंकृत हो जाता है, इसलिए सम्यग्दृष्टि को मोक्षमार्गी तथा पात्र माना गया है। व्रती जीव, जो भी त्याग व आचरण करता है, वह सब चरणानुयोग की पद्धति से करता है, उसमें जो भी इन्द्रिय-संयम एवं प्राणी-संयम का पालना होता है, वह सर्व चरणानुयोगानुसार एवं लोक-प्रवृत्ति के अनुसार ही होता है, उसमें करणानुयोग व द्रव्यानुयोग की विवक्षा अभीष्ट नहीं है; अतः दान-दाता को पात्रअपात्र की परीक्षा करते समय, व्यवहार-रत्नत्रय की मुख्यता से ही सुपात्र या कुपात्र व्रती जीव की पहिचान करनी चाहिए अर्थात् जिसके जिनेन्द्र देव, निर्ग्रन्थ गुरु, हिंसा-रहित धर्म का श्रद्धान पाया जाए; उसे सम्यक्त्वी और जिसके उनका (देव-शास्त्र-गुरु का) श्रद्धान नहीं है; उसे मिथ्यात्वी जानना चाहिए, क्योंकि दान देना, धर्मी श्रावक का परम कर्तव्य है; इसलिए उसे चरणानुयोग-कथित सम्यक्त्वमिथ्यात्व ग्रहण कर, स्व-विवेक से निर्णय कर, दान देना चाहिए। अन्यथा करणानुयोग की अपेक्षा से जो जीव ग्यारहवें गुणस्थान में था, वही अन्तर्मुहूर्त में प्रथम गुणस्थान में आ जाए तो दातार, पात्र-अपात्र का निर्णय कैसे करे? तथा जो द्रव्यानुयोगापेक्षा सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करें तो मुनिसंघों में द्रव्यलिंगी भी हैं और भावलिंगी भी हैं, सो प्रथम तो उसका ठीक (अच्छी तरह) निर्णय होना कठिन है, क्योंकि उनकी बाय-प्रवृत्ति समान होती है।