Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 169
________________ 164 क्षयोपशम भाव चर्चा परिणामरूप पुरुषार्थ जागृत कर, सीधे सप्तम गुणस्थान की निर्विकल्प अप्रमत्त शुद्धोपयोगदशा को प्राप्त कर सकता है और भावलिंग प्रगट कर सकता है। __परमागम में आहार-दान को वैयावृत्त्य (अपरनाम - अतिथिसंविभागवत) नामक श्रावकों के शिक्षाव्रत में अर्न्तगर्भित किया है। भोजन करना तो उसी गृहस्थ का सफल है, जो आहारदान पूर्वक भोजन करता है। अपना-अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं। जिसके घर में पात्रदान होता है, उसी का गृहस्थपना सफल है। उत्तम पात्र को दान देने से उत्तम भोगभूमि, मध्यम पात्र को दान देने से मध्यम भोगभूमि और जघन्य पात्र को दान देने से जघन्य भोगभूमि तथा कुपात्र को दान देने से कुभोगभूमि मिलती है और अपात्र को दान देने से नरकादि गति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पूज्यता-अपूज्यता की अपेक्षा विचार करें तो हमें दर्शनपाहुड, गाथा 2 एवं 26 से समाधान कर लेना चाहिए - 'दंसणहीणो ण वंदिव्वो' अर्थात् सम्यग्दर्शन से रहित वन्दनीय नहीं है। असंजदं ण वंदे, वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होंति समाणा, एगो वि ण संजदो होदि।। अर्थात् असंयमी तथा वस्त्रविहीन, भाव-संयम-रहित द्रव्यलिंगी साधु भी वंद्य नहीं है, क्योंकि दोनों ही संयम-रहित होने से समान हैं। ___ यहाँ कोई प्रश्न करे - बाय भेष शुद्ध हो और आचार निर्दोष पालन करनेवाले को अभ्यन्तर भाव में कपट हो, उसका निश्चय कैसे हो? तथा सूक्ष्मभाव तो केवलीगम्य हैं, मिथ्यात्व हो, उसका निश्चय कैसे हो? निश्चय बिना वन्दने की क्या रीति उसका समाधान - ऐसे कपट का जब तक निश्चय नहीं हो, तब तक आचार शुद्ध देख कर वन्दना करें, उसमें दोष नहीं है और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाए, तब वन्दना नहीं करे। यहाँ केवली-गम्य मिथ्यात्व की व्यवहार में चर्चा नहीं है, छद्मस्थ के ज्ञान-गम्य की चर्चा है। जो अपने ज्ञान का

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