________________ अष्टम चर्चा : सम्यक् पात्र-अपात्र-कुपात्र चर्चा 165 विषय ही नहीं, उसका बाध-निर्बाध करने का व्यवहार नहीं है। सर्वज्ञ भगवान की भी यही आज्ञा है। व्यवहारी जीव को व्यवहार का ही शरण है। (पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत इसी गाथा की टीका/भावार्थ से) प. पू. अमितगति आचार्य ने योगसार 5/56 में कहा है - द्रव्यतो यो निवृत्तोऽस्ति, स पूज्यो व्यवहारिभिः। भावतो यो निवृत्तोऽसौ, पूज्यो मोक्षं यियासुभिः।। अर्थात् व्यवहारीजनों के लिए द्रव्यलिंगी भी पूज्य है, परन्तु जो मोक्ष के इच्छुक हैं, उन्हें तो भावलिंगी ही पूज्य हैं। सारांश यह है कि धर्ममार्ग में तो पूज्यता संयम से ही आती है। भले ही लोकमार्ग में माता-पिता, दीक्षागुरु-शिक्षागुरु एवं राजा और मंत्री आदि असंयतजन भी ‘पूज्य' शब्द से व्यवहृत किये जाते हों। यद्यपि व्यवहार व्रत-संयम ग्रहण न किया होने से अविरत सम्यग्दृष्टि, जघन्य पात्र होने पर भी पूज्यता को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मोक्षमार्ग में पूज्यता संयम धारण करने से मानी गयी है; तथापि जैसे लोक में अपने जन्मदाता माता-पिता एवं शिक्षागुरु आदि को पूज्य माना जाता है, उसी तरह अविरत सम्यग्दृष्टि भी मोक्षमार्गस्थ होने से यथायोग्य पूज्यपने के व्यवहार को प्राप्त होता है। वहाँ पर सम्यक्त्व की महिमा दर्शाना ही अभीष्ट है; इसीलिए प.पू.समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन को मोक्षमार्ग में कर्णधार (खेवटिया) सिद्ध कर उसकी महिमा में ग्यारह श्लोक लिखे हैं, क्योंकि उस सम्यग्दर्शन ही के कारण ज्ञान, सम्यग्ज्ञान और चारित्र, सम्यक्चारित्र नाम पाता है, अन्यथा वे (ज्ञानचारित्र), सम्यक्त्व के अभाव में मिथ्याज्ञान-मिथ्याचारित्र कहलाते हैं। यहाँ पर सम्यक्त्व-महिमा सूचक रत्नकरण्ड श्रावकाचार के दो श्लोक उद्धृत कर रहा हूँ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान् / अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः / / अर्थात् जिसे मिथ्यात्व (दर्शनमोह) नहीं है - ऐसा निर्मोही गृहस्थ, मोक्षमार्ग में स्थित है तथा मोही अनगार अर्थात् मोहसहित गृहरहित मुनि, मोक्षमार्गी नहीं