________________ सप्तम चर्चा : शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा 159 भी द्रव्य, अपने से भिन्न सत्तावाले द्रव्य के परिणाम का कर्ता नहीं हो सकता। जो होवे, तो उसे उस अन्य द्रव्यरूप हो जाना पड़ेगा। _ 'व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध, तत्स्वरूप अर्थात् अपने द्रव्य में ही होता है। जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त होता है, सो तो व्यापक है और कोई एक अवस्था विशेष, वह उस व्यापक का व्याप्य है। इस प्रकार द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय उसकी व्याप्य है। द्रव्य-पर्याय, अभेदरूप ही हैं। जो द्रव्य का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्व है, वही पर्याय का आत्मा, स्वरूप अथवा सत्व है। जहाँ व्याप्य-व्यापक भाव होता है, वहीं कर्ता-कर्म भाव होता है। व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म भाव नहीं होता। जो ऐसा जानता है, वह पुद्गल और आत्मा में कर्ता-कर्म भाव नहीं है - ऐसा जानता है।' (समयसार कलश 49) जो सांख्यमती, प्रकृति और पुरुष (आत्मा) को सर्वथा अपरिणामी मानते हैं, उन जैसी मान्यता, जिनमतानुयायियों की नहीं होती है। पुद्गलों में कर्मरूप परिणमने की शक्ति एवं जीवों में क्रोधादि विकाररूप या अविकाररूप परिणमने की शक्ति अपनी-अपनी स्वयं से है। मिथ्यात्वादि कर्म का उदय होना, जीव का अपने अतत्त्व-श्रद्धानादि भावरूप स्वयं परिणमना तथा नवीन पुद्गलों का कर्मरूप परिणमना, उनका जीव-प्रदेशों से बँधना - ये तीनों ही कार्य, एक समय में ही होते हैं। सब स्वतन्त्रतया अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसी का परिणमन नहीं कराता / जीव कभी भी जड़कर्मरूप नहीं परिणम सकता और पुद्गलकर्म, कभी जीवरूप नहीं परिणम सकते। हाँ ! जीव-परिणाम का निमित्त पाकर, पुद्गल कर्मरूप परिणमित होते हैं और पुद्गल-कर्म का निमित्त पाकर जीव भी परिणमित होते हैं।' इस प्रकार अन्योन्य निमित्त-मात्रता तो है अर्थात् दोनों में निमित्त-नैमित्तिक भाव का निषेध नहीं है, तथापि उनके कर्ता-कर्मपना सर्वथा नहीं है / पर के निमित्त से जो अपने भाव हए, उनका कर्ता तो जीव को अज्ञानदशा में कदाचित् कह भी सकते हैं, परन्तु जीव, परभाव का कर्ता कदापि नहीं है। यदि जीव, पुद्गलों को और पुद्गलकर्म, जीव को कर्ता होकर परिणमाते हों तो क्या वे 'नहीं परिणमते हुए' को परिणमाते हैं या ‘स्वयं परिणमते हुए' को