________________ क्षयोपशम भाव चर्चा __ आप रागी-द्वेषी, अल्पज्ञों, अनात्मज्ञों की एक भी मत सुनो, परन्तु सर्वज्ञवाणी, जिनवाणी की सब-कुछ सुनो अथवा जो अपने हितैषी हों, निःस्वार्थ भाव से धर्म के मर्म की बातें सुनायें तो उनकी अवश्य सुनो। ___अपनी बुद्धि से विचार करना, न्याय से समझना, अपनी बुद्धि कभी किसी के पास गिरवी मत रखना / व्यवहार-धर्माचरण तो आये बिना रहेगा नहीं और अधर्माचरण जाये बिना रहेगा नहीं। एक बार जब कहीं बाहर गाँव या तीर्थ-यात्रादि पर जाने का निश्चय, मन में हो जाता है तो तदनुकूल तैयारी भी हम करने लगते हैं। अरे, जैनधर्म का सेवन तो संसार-नाश के लिए किया जाता है और वह अपने को महाभाग्य से मिल गया है तो फिर देरी किस बात की? __ अपनी शक्ति-प्रमाण द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को ध्यान में रख कर, जितना बने, उतना संयम भी पालो, जैनदर्शन कभी भी पाप करने की अनुमति तो देता नहीं है, खूब पुण्य-कार्य करो, कौन रोकता है? परन्तु आत्मज्ञान के बिना वे कभी भी कीमती रत्न नहीं बन पाते हैं। ___हम व्यर्थ ही परद्रव्यों के कर्ता बने फिरते हैं, वे तो अपने आप अपनी-अपनी योग्यतानुसार परिणमते रहते हैं, क्योंकि कोई भी वस्तु अपने परिणमन के लिए साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखती। (प्रवचनसार, गाथा 98, तत्त्वप्रदीपिका) तथा 'वज्झ-कारण-निरवेक्खो वत्थु-परिणामो' (जयधवला, 7/117) अर्थात् वस्तु का परिणमन, बाह्य-कारणों से निरपेक्ष होता है, उसके परिणमन में उचित बहिरंग-साधनों की सन्निधि का सद्भाव' तो होता ही है। (प्रवचनसार, गाथा 95, तत्त्वप्रदीपिका) कोई भी वस्तु, द्रव्य से द्रव्यान्तर या गुण से गुणान्तर नहीं होती। (समयसार, गाथा 103, आत्मख्याति) स्वयं परिणमती वस्तु को परिणमाने वाला कर्ता बनना ही अनन्त दुःखों को आमन्त्रण देना है। जीव, पौद्गलिक-कार्मण-वर्गणा को ज्ञानावरणादि कर्मरूप नहीं परिणमाता और पूर्वबद्ध कर्मोदय भी, जीव को विकाररूप नहीं परिणमाते हैं, क्योंकि सर्व द्रव्य, परिणमन स्वभाववाले हैं; इसलिए वे अपने-अपने भाव के स्वयं ही कर्ता हैं। प्रत्येक द्रव्य की कार्य-सीमा, उसके अपने परिणाम तक ही होती है। कोई