Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 156
________________ सप्तम चर्चा : शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा 151 प्रकृति का बन्ध सम्यक्चारित्र से होना, जिनागम में कहा ही है तो भी नय-विभाग के ज्ञाता, इस कथन को अविरूद्ध समझते हैं, क्योंकि अभूतार्थ व्यवहारनय की अपेक्षा से ही सम्यक्त्व व चारित्र को इन प्रकृतियों का बन्ध करनेवाला कहा है, परन्तु भूतार्थ निश्चयनय की अपेक्षा से सम्यक्त्व व चारित्र कभी भी बन्ध के निमित्त-कर्ता नहीं होते। बन्ध के कर्ता तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषायभाव ही हैं, योग(आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्द) तो प्रकृति-प्रदेशबन्ध का कारण होता है, जिससे अकषायी जीवों में ग्यारहवें-बारहवें-तेरहवें गुणस्थानों में मात्र योग से ईर्यापथआस्रव होता है। यदि सम्यक्त्व, चारित्र और शुद्धोपयोग भी बन्ध के कारण माने जायेंगे तो फिर उक्त तीन गुणस्थानों में भी उक्त पुण्य-प्रकृतियों का बन्ध (स्थितिअनुभाग सहित) मानना पड़ेगा, जो आगम-विरुद्ध होगा। यही बात आचार्यदेव अगले श्लोक में कह रहे हैं - सति सम्यक्त्व-चारित्रे, तीर्थंकराहारबन्धकौ भवतः। योग-कषायौ नासति, तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् / / अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र के होने पर ही तीर्थंकर और आहारक-प्रकृति के बन्ध करनेवाले योग और कषाय होते हैं, और उनके नहीं होने पर नहीं होते हैं अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र के बिना बन्ध के कर्ता, योग और कषाय नहीं होते; ध्यान रहे कि वे सम्यक्त्व और चारित्र, इस बन्ध में उदासीन होते हैं। ___ भावार्थ यह है कि सम्यक्त्व व चारित्र, उक्त प्रकृतियों के बन्ध के न तो कर्ता ही हैं और न अकर्ता ही, उदासीन हैं। जैसे, महामुनियों के समीपवर्ती जाति-विरोधी जीव, अपना-अपना वैरभाव छोड़ देते हैं, परन्तु वे मुनिराज, उन जीवों के इस वैरभाव-त्यागरूप कार्य के न तो कर्ता ही हैं और न अकर्ता हैं। वे कर्ता तो इस कारण नहीं हैं कि वे योगारूढ उदासीन-वृत्ति के धारक बाह्य कार्यों से पराङ्मुख हैं और अकर्ता इस कारण नहीं हैं कि यदि वे न होते तो उक्त जीव, वैर-विरोध के त्यागी भी नहीं होते; अतएव वे कर्ता-अकर्ता न होकर उदासीन हैं। समीक्षा - इसी प्रकार तीर्थंकर एवं आहारक-प्रकृति-बन्धरूप कार्य में सम्यक्त्वचारित्र को जानना चाहिए। वस्तुतः इन प्रकृतियों का बन्ध, सराग-सम्यक्त्व अर्थात् सराग-चारित्र, जो शुभरागरूप ही हैं, उनके निमित्त से ही होता है।

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