________________ सप्तम चर्चा शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा जब सम्यग्दृष्टि जीव, एकदेश रत्नत्रय धारण करता है, देशव्रती हो जाता है; तब उसे जो कर्मबन्ध होता है वह उसके जो मन्दरागरूप कषाय है, उससे होता है, न कि रत्नत्रयरूप वीतरागांश से। इस बात का प्रमाण पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 211 से 222 में है। असमग्र रत्नत्रय की अवस्था में भी शुभभाव के प्रादुर्भाव से पुण्य-प्रकृति का बन्ध होता है, लेकिन वह मिथ्यादृष्टि की तरह संसार-वृद्धि का कारण नहीं कहा है, किन्तु परम्परा से मोक्ष का कारण कहा है। निर्ग्रन्थ अवस्था धारण कर लेने पर अर्थात् सकल-संयमी हो जाने पर तो वह रागांश घटते-घटते पूर्णतः समाप्त हो जाता है और वीतरागांश दूज की चन्द्रमा की तरह बढ़ते-बढ़ते एक दिन पूर्णता को प्राप्त हो पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह पूर्ण हो जाता है, तब वहाँ बन्ध का कोई कारण न रहने से पूर्ण अबन्ध अवस्था प्रगट हो जाती है। शंका - सम्यग्दर्शन से तीर्थंकर-प्रकृति, देवायु आदि पुण्य-प्रकृतियों का तथा चारित्र से आहारक-प्रकृति का बन्ध होता है या नहीं? समाधान - पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 217 से 222 के आधार से इस प्रश्न का समाधान खोजा जा सकता है - सम्यक्त्व-चारित्राभ्यां, तीर्थंकराहारकर्मणो बन्ध : / योऽप्युपदिष्टाः समये, न नयविदां सोऽपि दोषाय / / अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र से तीर्थंकर-प्रकृति और आहारकप्रकृति का बन्ध होता है - ऐसा जो जिनागम में उपदेश है, उसमें भी नय-विवक्षा को जाननेवाले को कुछ दोष (विरोध) नहीं दिखायी देता है, नहीं जान पड़ता है। विशेषार्थ यह है कि तीर्थंकर-प्रकृति का बन्ध, चतुर्थ गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक तीनों प्रकार के सम्यक्त्वों से होना तथा आहारक