________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग 149 रसमय सच्चे जिनधर्म का स्वरूप वही खोल (बता) सकता है। बिना स्वरूपानुभव रूप निश्चय सम्यग्दर्शन के कोई भी जिनधर्म का मर्मज्ञ-तत्त्ववेत्ता नहीं हो सकता। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने (मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृ.१६) 'सच्चा वक्ता कौन और किसके मुख से शास्त्र सुनना?'- इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है, जो निम्न प्रकार से है - 'चौदह विद्याओं में भी अध्यात्म-विद्या प्रधान कही है; इसलिए जो अध्यात्मरस का रसिया वक्ता है, उसे जिनधर्म के रहस्य का वक्ता जानना / पुनश्च, जो बुद्धि-ऋद्धि के धारक हैं तथा अवधि-मनःपर्यय या केवलज्ञान के धनी वक्ता हैं, उन्हें महान वक्ता जानना / ऐसे वक्ताओं के विशेष गुण जानना / सो इन विशेष गुणों के धारी वक्ता का संयोग मिले तो बहुत भला ही है और न मिले तो श्रद्धानादि गुणों के धारी वक्ताओं के मुख से ही शास्त्र सुनना। इस प्रकार के गुणों के धारक मुनि अथवा श्रावक, उनके मुख से तो शास्त्र सुनना योग्य है और पद्धति-बुद्धि से अथवा शास्त्र सुनने के लोभ से श्रद्धानादि गुणरहित पापी पुरुषों के मुख से शास्त्र सुनना उचित नहीं है। कहा भी है - तं जिण-आणपरेण य, धम्मो सोयव्व सुगुरु-पासम्मि। अह उचियो सद्धाओ, तस्सुवएसस्स कहगाओ।। अर्थात् जो जिन आज्ञा मानने में सावधान है, उसे निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकट धर्म सुनना योग्य है, अथवा उन सुगुरु ही के उपदेश को कहनेवाला उचित श्रद्धानी श्रावक, उससे धर्म सुनना योग्य है। ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धि से उपदेशदाता हो, वही अपना तथा अन्य जीवों का भला करता है और जो कषाय-बुद्धि से उपदेश देता है, वह अपना तथा अन्य जीवों को बुरा करता है - ऐसा जानना चाहिए। शिवाकांक्षी - ब्र. हेमचन्द्र जैन 'हेम' (भोपाल) * * * * *