________________ 147 षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग प्रवचनसार, गाथा 271-275 (पञ्चरत्न की गाथाएँ) प्रवचनसार ग्रन्थ की अन्तिम पाँच गाथाएँ, जो कि पञ्चरत्न की गाथाएँ कहलाती हैं, वे भी यहाँ दृष्टव्य हैं; जिनमें संसारतत्त्व (अज्ञानी श्रमणाभासरूप द्रव्यलिंगी), मोक्षतत्त्व (पूर्णज्ञानी प्रशान्तात्मा अरहन्त अवस्था में स्थित भावलिंगी श्रमण) एवं मोक्षोपाय रूप साधनतत्त्व (शुद्धोपयोगी मुनिराज) का वर्णन कर, सर्व मनोरथों के स्थानभूत सिद्ध अवस्था का अभिनन्दन कर, शिष्यजनों को शास्त्र-पाठ के लाभ से जोड़ते हुए शास्त्र समाप्त किया है। आज से दो हजार वर्ष पूर्व इस देश में परमपूज्य कुन्दकन्दाचार्यदेव ने इस पंचमकाल में तीर्थंकरतुल्य काम किया है; उनके एक हजार वर्ष बाद अर्थात् आज से एक हजार वर्ष पूर्व प. पू. अमृतचन्द्राचार्यदेव ने उनके गणधरतुल्य काम किया है। श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव की वस्तु-निष्ठ कथन-पद्धति अलौकिक है। उनके द्वारा रचित मूल गाथा-सूत्रों का गम्भीर रहस्य, श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ने टीका द्वारा सरल, सुगम एवं स्पष्ट किया है, अकेला अमृत बहाया है। राग-कषाय का स्वाद, एकान्त दुःखरूप तथा स्वरूप-संवेदन से प्राप्त ज्ञान का स्वाद एकान्त सुखरूप दर्शाकर, निकट भव्य जीवों को इस निकृष्ट कलिकाल में दिव्यध्वनिस्वरूप उत्कृष्ट वचनामृत का पान कराया है। __उनके द्वारा लिखे गये तीन परमागमों - समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय की टीकाओं में वस्तुनिष्ठ विज्ञानरूप अध्यात्म एवं अज्ञानी-ज्ञानी की मान्यतारूप भेद-कथन ही मुख्य रहा है। जबकि उनके दो/तीन सौ वर्ष बाद आज से आठ/नौ सौ वर्ष पूर्व प. पू. जयसेनाचार्यदेव ने उन्हीं की टीकाओं का अनुसरण करते हुए उक्त तीन ग्रन्थों की ही सरल, सुबोध संस्कृत भाषा में आगम-अध्यात्म का सुमेल दर्शानेवाली गुणस्थानों की विवेचना सहित मार्मिक टीकाएँ लिखी हैं। कविवर वृन्दावनजी ने तो यहाँ तक कहा है - शुद्धि-बुद्धि-वृद्धि-दा, प्रसिद्धि-रिद्धि-सिद्धि-दा। हुए हैं, न होहिंगे, मुनिंद कुन्दकुन्द से।