Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 151
________________ 146 क्षयोपशम भाव चर्चा अथ तेषामेव पात्रभूततपोधननां प्रकारान्तरेण लक्षणमुपलक्षयति, शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणत पुरुषाः पात्रं भवन्तीति। तद्यथा - निर्विकल्पसमाधिबलेन शुभाऽशुभोपयोगद्वयरहितकाले कदाचिद्वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगयुक्ताः कदाचित्पुनर्मोहद्वेषाऽशुभराग रहितकाले सरागचारित्रलक्षण-शुभोपयोगयुक्तः सन्तो भव्यलोकं निस्तारयन्ति, तेषु च भक्तो भव्यवरपुण्डरीकः प्रशस्तफलभूतं स्वर्गं लभते। अर्थात् अब उन्हीं पात्रभूत मुनिराजों का दूसरे रूप से लक्षण स्पष्ट करते हैं - शुद्धोपयोग एवं शुभोपयोगपरिणत पुरुष पात्र हैं। वह इसप्रकार - विकल्परहित समाधिस्वरूप स्थिरता के बल से, कभी शुभ-अशुभ दोनों उपयोगों से रहित होते हुए वीतरागचारित्र-लक्षण शुद्धोपयोग से सहित तथा कभी मोह (मिथ्यात्व), द्वेष और अशुभराग से रहित होते हुए सरागचारित्र-लक्षण शुभोपयोग से सहित होते हए भव्य जीवों को तारते हैं और उनके प्रति भक्तिवाले भव्यवर-पुण्डरीक (भव्यों में श्रेष्ठ) भक्तजन, प्रशस्त फलभूत स्वर्ग प्राप्त करते हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं - ऐसा भाव (तात्पर्यवृत्ति) समीक्षा - वस्तुतः उक्त दोनों टीकाओं में ‘क्षायोपशमिक चारित्र' क्या चीज है? इसका अत्यन्त स्पष्टरूप से विवेचन किया गया है। छठवें-सातवें गुणस्थानों में झूलनेवाले मुनिराजों के अशुभोपयोग तो होता ही नहीं। शेष दो शुभ व शुद्ध उपयोगों में से एक काल में (एक-एक अन्तर्मुहूर्त में) कोई एक उपयोग ही होता है। शुभोपयोग वस्तुतः प्रशस्त कषाय/राग के विपाक का फल होने से सास्रव और शुद्धोपयोग निरास्रवभाव है। सर्वघाति-स्पर्द्धकों के अनुदय से शुद्धता/शुद्धपरिणतिरूप अंश तथा देशघाति स्पर्द्धकों के उदय से अशुद्धता/अशुद्धपरिणतिरूप अंश - ऐसा एक मिश्रभावरूप चारित्र का परिणाम (पर्याय) होता है - यह बात हस्तामलकवत् स्पष्ट है। इसी प्रकार शुद्धतारूप अंश से संवर-निर्जरा तथा अशुद्धतारूप अंश से आस्रव-बन्ध होता है।

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