________________ 142 क्षयोपशम भाव चर्चा प्रवचनसार, गाथा 248 ननु शुभोपयोगिनामपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयागिनामपि क्वापि काले शुभोपयोगभावना दृश्यते, श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्धभावना दृश्यते, तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायते? इति। परिहारमाह - युक्तमुक्तं भवता, परं किंतु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, ते यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति, तथापि शुभोपयोगिन एव भण्यन्ते / येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते, तथापि शुद्धोपयोगिन एव / कस्मात् ? बहुपदस्य प्रधानत्वादाम्र वननि बवनवदिति। अर्थात् यहाँ कोई शंका करता है कि शुभोपयोगियों के भी, किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना दिखायी देती है, शुद्धोपयागियों के भी किसी समय शुभोपयोग भावना देखी जाती है, श्रावकों के भी सामायिकादि के समय शुद्धभावना देख जाती है, तब उनका विशेष भेद कैसे ज्ञात होता है? आचार्य उसका समाधान करते हुए कहते हैं -- आपका कहना उचित है, परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोगरूप आचरण करते हैं, वे यद्यपि किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना करते हैं, तो भी शुभोपयोगी ही कहलाते हैं तथा जो शुद्धोपयोगी हैं, वे भी किसी समय शुभोपयोगरूप वर्तते हैं, तो भी शुद्धोपयोगी ही हैं। (इन दोनों प्रकार के उपयोगों रूप प्रवृत्ति होने पर भी) ऐसा क्यों है? बहुपद अर्थात् बहुलता की प्रधानता होने के कारण, आम्रवना-नीमवन आदि के समान, दोनों रूप प्रवृत्ति होने पर भी, अधिकता की अपेक्षा उनमें अन्तर है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार, गाथा 251 जोण्हाणं णिरवेक्खं, सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयारं, कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो।। अर्थात् यद्यपि अल्प लेप होता है, तथापि साकार-अनाकार चर्यायुक्त (अर्थात् ज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान वृत्तिवाले) अथवा सागार-अनगार चर्यावाले