________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग हमारे मुनिराज भगवन्त, ‘आगम-चक्खू साहू' (प्रवचनसार, गाथा 234) अर्थात् साधु आगम-चक्षु होते हैं, उस आगमरूप चक्षु से वे स्व-पर का विभाग करके महामोह सुभट को जीतकर, निज-ध्रुव-चिदानन्दात्मा को पाकर सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं, ज्ञेयनिष्ठ नहीं होते / उस आगमरूप चक्षु से उन्हें सब-कुछ दिखायी देता है; इसीलिए आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और तदुभयपूर्वक संयतत्व की युगपतता को ही साक्षात् मोक्षमार्गपना होने का नियम है। प्रवचनसार, गाथा 236 यदि निर्दोषिनिजपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यक्त्वं नास्ति, तर्हि परमागमबलेन विशदैकज्ञानमात्मानं जानन्नपि सम्यग्दृष्टिर्न भवति, ज्ञानी च न भवति, तद्वयाऽभावे सति पञ्चेन्द्रियविषयाऽभिलाषषड्जीववधव्यावृत्तोऽपि संयतो न भवति / ततः स्थितमेतत्-परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्व-त्रयमेव मुक्तिकारणमिति / अर्थात् यदि दोषरहित अपना परमात्मा ही उपादेय है - ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है तो परमागम के बल से स्पष्ट एक ज्ञानरूप आत्मा को जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी भी नहीं है। इन दोनों का अभाव होने पर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा और छह काय के जीवघात से व्यावृत्त या निवृत्त होने पर भी संयत नहीं है; इससे निश्चित हुआ कि परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतपना - इन तीनों का युगपतपना ही मुक्ति का कारण है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार, गाथा 238 अथ परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां मेलापके - ऽपि यदभेदरत्नत्रयात्मकं निर्विकल्पसमाधिलक्षणमाऽऽत्मज्ञानं, निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति - जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भवसयसहस्सकोडिहिं / तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तेण / / ...ततो ज्ञायते परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्त्रयरूपस्य स्वसंवेदन-ज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति।