________________ तृतीय चर्चा : सम्यक् क्षायोपशमिक भाव चर्चा यद्यपि वे लोग, ऐसा कहते हुए भी इन पुण्य-पाप भावों से रहित वीतराग भावस्वरूप शुद्धोपयोग को नहीं पहिचानते, उन्हें इस विषय पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि शुभ-अशुभ, दोनों को अशुद्धता की अपेक्षा एवं बन्ध-कारण की अपेक्षा समान बतलाया है। हाँ, इतना अवश्य है कि शुभ-अशुभ का परस्पर विचार करें तो शुभभावों में कषायें मन्द होने से बन्ध, हीन होता है और अशुभ भावों में कषायें तीव्र होने से बन्ध, अधिक होता है; इसलिए ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव, यथापदवी निचली दशा में जहाँ मुनिराजवत् शीघ्र-शीघ्रशुद्धोपयोग नहीं हो सकता, अशभभावमय तीव्रकषायरूप अव्रतादि परिणामों से बचे रहने के लिए तथा संसार-स्थिति छेदने के लिए मन्दकषायरूप व्यवहार-व्रतादि परिणामरूप आचरण आचरते हैं; उस काल में वे ज्ञानी सम्यग्दृष्टि, उस शुभोपयोग को औषधिवत् उपयोगी तो जानते हैं, लेकिन उपादेय नहीं मानते हैं, परन्तु शुभोपयोग को छोड़कर निःशंक पापरूप प्रवर्तन भी नहीं करते हैं। यदि कोई निर्विचारी पुरुष, व्यवहार व्रतादि सरागचारित्र को सर्वथा अनुपयोगी जान कर, छोड़ बैठे तो विषय-कषायरूप अशुभाचरणी होकर, नरकादि में चला जाएगा। वस्तुत: व्रत-शील-संयम का नाम व्यवहार नहीं है, इसको मोक्षमार्ग कहना व्यवहार है; अत: उसको मोक्षमार्ग मानना छोड़ कर, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए कि इन व्रतादि को बाह्य सहकारी निमित्त कारणरूप जान कर, उपचार से मोक्षमार्ग कहा है, लेकिन यह परद्रव्याश्रित होने से व्यवहार मोक्षमार्ग ही कहा गया है। सच्चा तो स्वद्रव्याश्रित वीतरागभाव मात्र ही निश्चय मोक्षमार्ग होता है। ___यद्यपि साधक अवस्था में निश्चय-व्यवहार, दोनों मोक्षमार्ग युगपत् प्रगट होते हैं, तथापि सराग/व्यवहार/द्रव्यसंयम बुद्धिपूर्वक ग्रहण किये बिना, वीतराग/निश्चय/भाव संयम कदापि प्रगट नहीं होता - ऐसा अविनाभाव सम्बन्ध होने के कारण व्यवहार को निश्चय का हेतु कहा है। दि. 09. 09. 2007 शिवाकांक्षी - ब्र. हेमचन्द जैन 'हेम' (देवलाली)