________________ षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग 125 अब हम इस ग्रन्थ के आधार से प्रकृत विषय, शुभोपयोग-शुद्धोपयोग की मिश्र अवस्था (साधक मोक्षमार्गस्थ जीव) का स्वरूप देखते हैं। आगमनिष्ठ निष्पक्ष सुविज्ञजन, इस पर अपना निर्मल अभिप्राय प्रगट कर, हमें अनुग्रहीत करें कि जिससे जिनागम की रंचमात्र भी अवहेलना न हो, भ्रान्ति का निवारण हो, हम-आप में परस्पर हार्दिक वात्सल्य हो, धर्मियों से गौवत्ससम प्रीति उत्पन्न हो और 'जैन जयतु शासनम्' का ध्वज, पंचम काल के अन्त तक लहराता रहे। हमारे द्वारा किसी भी प्रकार से देव-शास्त्र-गुरु का अवर्णवाद न हो - इस पवित्र भावना के साथ हम सोचें, विचार करें कि यह ग्रन्थराज प्रवचनसार क्या कहता है? (1) प्रवचनसार गाथा 5 ___ सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसम्प्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलंक विविक्ततया निर्वाण-सम्प्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसम्पद्ये / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाग्रयगतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थः / एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्ग सम्प्रतिपन्नः / ____ अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान सम्पन्न होकर, जिसमें कषायकण विद्यमान होने से जो जीव को पुण्यबन्ध की प्राप्ति का कारण है - ऐसे सरागचारित्र को, क्रम में आ पड़ने पर भी (अर्थात् गुणस्थान-आरोहण के क्रम में बलात् चारित्रमोह के उदय से आ पड़ने पर भी) दूर से ही उल्लंघन करके, जो समस्त कषाय-क्लेशरूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण-प्राप्ति का कारण है - ऐसे वीतरागचारित्र नामक साम्य को प्राप्त करता हूँ। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की ऐक्यस्वरूप एकाग्रता को मैं प्राप्त करता हूँ। यह इस प्रतिज्ञा का अर्थ है। इस प्रकार तब इन्होंने (श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव) ने साक्षात् मोक्षमार्ग को अंगीकार किया। (तत्त्वप्रदीपिका) रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभावः परमात्मेति भेदज्ञानं तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रूचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षणज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादि-लक्षण-व्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं भावाश्रमरूपं