________________ 128 क्षयोपशम भाव चर्चा अर्थात् ‘चारित्र ही वास्तविक धर्म है' - ऐसा वचन होने से वही धर्म, दूसरे शब्दों में चारित्र कहा जाता है और वह चारित्र (1) अपहृतसंयम-उपेक्षासंयम के भेद से अथवा (2) सराग-वीतराग के भेद से अथवा (3) शुभोपयोग-शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का है। वहाँ जो शुद्ध-सम्प्रयोग शब्द से कहा जानेवाला शुद्धोपयोगस्वरूप वीतरागचारित्र है, उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धोपयोग में रहने की शक्ति का अभाव होने पर जब (पूर्वोक्त जीव) शुभोपयोगरूप सरागचारित्र से परिणत होता है तो अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक-सुख से विपरीत आकुलता पैदा करनेवाला स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है तथा बाद में परम-समाधिरूप मोक्ष की कारणभूत वीतरागचारित्ररूप सामग्री के सद्भाव में मोक्ष प्राप्त करता है - इस प्रकार यह गाथा का भाव है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार, गाथा 12 असुहोदएण आदा, कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुःक्खसहस्सेहिं सदा, अभिदुदो भमदि अच्चंतं / / अर्थात् अशुभ उदय से आत्मा, कुमनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी होकर, हजारों दुःखों से सदा पीडित होता हुआ, संसार में अत्यन्त भ्रमण करता है। ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति / अर्थात् चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 13 अइसयमादसमुत्थं, विसयातीदं अणोवममणंतं / अव्वुच्छिण्णं च सुहं, सुद्धवओगप्पसिद्धाणं / / अर्थात् शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं का (केवली और सिद्धों का सुख - (1) अतिशय (2) आत्मोत्पन्न (3) विषयातीत(अतीन्द्रिय) (4) अनुपम (5) अनन्त (अविनाशी) और (6) अविच्छिन्न (अटूट) होता है।