________________ 132 क्षयोपशम भाव चर्चा तदेवाऽऽगम-सारपदभूतयाऽध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मभावनाऽभिमुखरूपेण सविकल्प-स्वसंवेदनज्ञानेन तथैवाऽऽगमभाषयाधःप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणामविशेषबलेन पश्चादाऽऽत्मनि योजयति। तदनन्तरमविकल्पस्वरूपरूपे प्राप्ते यथा पर्यायस्थानीयमुक्ताफलानि गुणस्थानीयं धवलत्वं चाऽभेदननयेन हार एव, तथा पूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्यायाऽभेदनयेनाऽऽत्मैवेति भावयतो दर्शनमोहाऽन्धकारः प्रलीयते। इति भावार्थः। अर्थात् अब ‘चत्ता पावारंभ' इत्यादि 79वीं गाथा द्वारा कहा था कि शुद्धोपयोग के अभाव में मोहादि का विनाश नहीं होता तथा मोहादि का विनाश नहीं होने पर शुद्धात्मा का लाभ नहीं होता, उसके लिए ही अब उपाय का विचार करते हैं - ‘जो अरहंत को जानता है, .... इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप को पहले कहे हुए अरहंत नामक परमात्मा में जानकर, तदनन्तर निश्चयनय से उसी आगम के सारभूत अध्यात्मभाषा से स्वशुद्धात्मभावना के सन्मुखरूप सविकल्पस्वसंवेदनज्ञान से, उसी प्रकार आगमभाषा से अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह के क्षय में समर्थ परिणाम-विशेष के बल से पश्चात् (अपने ज्ञान को) आत्मा में जोड़ता है। ___ तदनन्तर निर्विकल्प स्वरूप प्राप्त होने पर, जैसे अभेदनय से पर्यायस्थानीय अनेक मुक्ताफल (मोती) और गुणस्थानीय धवलता (सफेदी) आदि हार ही है; उसी प्रकार अभेदनय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मा ही है। इस प्रकार परिणमित होता हुआ (उसका) दर्शनमोहरूप अन्धकार विनाश को प्राप्त होता है - यह भावार्थ है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार, गाथा 155 वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण ‘उपयोग-विशेष' (अमुक प्रकार का उपयोग) ही है। प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है, क्योंकि वह चैतन्यअनुविधायी परिणाम है और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार - ऐसा उभयरूप है।