________________ 126 क्षयोपशम भाव चर्चा प्रधानाश्रमं प्राप्य तत्पूर्वकं क्रमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारणमिति ज्ञात्वा परिहृत्य निश्चलशुद्धात्मानुभूतिस्वरूपं वीतरागचारित्रमहमाश्रयामीति भावार्थः। अर्थात् मठ-चैत्यालायादि रूप व्यवहार आश्रम से भिन्न लक्षणवाले, रागादि से भिन्न अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न यह सुखस्वभावी परमात्मा है - ऐसे भेदज्ञान तथा वह सुखस्वभावी आत्मा ही पूर्णतः उपादेय है - ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व; इन लक्षणों वाले ज्ञान-दर्शनस्वभावी भावाश्रमरूप प्रधान आश्रम को प्राप्त कर, उस पूर्वक होने वाला सरागचारित्र क्रमापतित अवश्यम्भावी होने पर भी पुण्यबन्ध का कारण है - ऐसा जान कर, उसे छोड़ कर, शुद्धात्मा में स्थिर अनुभूति स्वरूप वीतरागचारित्र का मैं आश्रय लेता हूँ - यह गाथा का भाव है। (Vmen(r)(c)dY={Im) प्रवचनसार गाथा 6 संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः / तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपो बन्धः। अतो मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सरागचारित्रं हेयम् / अर्थात् दर्शन-ज्ञान-प्रधान चारित्र से, यदि वह (चारित्र), वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है और यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभवक्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है; इसलिए मुमुक्षुओं को इष्ट फलवाला होने से वीतरागचारित्र उपादेय है और अनिष्ट फलवाला होने से सरागचारित्र हेय है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार गाथा 7 चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो।।७।। स्वरूपे चरणं चारित्रं, स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः / तदेव वस्तुस्वभावात्वाद्धर्मः / शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः / तदेव च यथावस्थिततात्मगुणत्वात्साम्यम् / साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोहक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीवस्य परिणामः। ___ (तत्त्वप्रदीपिका) अर्थात् स्वरूप में चरण करना, रमना सो चारित्र है; स्वसमय में प्रवृत्ति करना