________________ पंचम चर्चा : धवलादि ग्रन्थों में क्षयोपशम भाव का स्वरूप 123 क्या जैनदर्शन, किसी को पापकर्म करने की छूट देता है? क्या वह, पुण्यासव-बन्ध को वीतरागभावरूप संवर-निर्जरातत्त्व बतलाता है? अरे! जैनदर्शन तो पुण्य को सोने की बेड़ी और पाप को लोहे की बेड़ी सिद्ध करता है, दोनों को कर्म कहता है, धर्म नहीं। वस्तुतः व्रत (पुण्य) और अव्रत (पाप), दोनों प्रकार के विकल्प रहित तथा जहाँ परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का कुछ भी प्रयोजन नहीं - ऐसा उदासीन, वीतराग -स्वरूप, शुद्धोपयोग ही धर्म है, निश्चय मोक्षमार्ग है; परन्तु निचली दशा में (चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि से छठे-सातवें स्वस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों तक) शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का युक्तपना पाया जाता है, इसलिए उपचार से पुण्यबन्ध के कारण व्रतादिक सरागसंयमरूप शुभोपयोग को मोक्षमार्ग कहा है। परमार्थतः पुण्यबन्धकारक शुभभाव, मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं हो सकता, व्यवहार, (उपचार) से ही उसे मोक्ष का परम्परा कारण कहा जा सकता है। वस्तुतः जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके, वहाँ अशुभोपयोग को छोड़कर शुभोपयोगरूप शुभाचरण में ही प्रवर्तन करने की जिनाज्ञा है, क्योंकि शुभोपयोग की अपेक्षा अशुभोपयोग में अशुद्धता की अधिकता है। शुभ-अशुभ, इन दोनों की एक 'अशुद्धोपयोग' ही संज्ञा है। वस्तुतः जैनदर्शन तो किसी को भी पाप में जाने नहीं देता; पुण्य को धर्म मानने नहीं देता, व्यवहार से कहने देता है, करने देता है। अरे! पुण्य को धर्म कहना उपचार है, व्यवहार है, परन्तु पुण्य को धर्म मानना मिथ्यात्व है। अरे भाई! आज मानो, कल मानो, या अनन्तकाल के बाद मानो, यह परमार्थ-स्वरूप जाने-माने बिना, स्व-पर के एकत्व के अध्यास व अभ्यासरूप मिथ्यात्व का प्रक्षालन सम्भव नहीं होगा। इसलिए आत्मसिद्धि में कहा है - एक होय त्रण काल मां, परमारथ नो पन्थ / प्रेरे जे परमार्थ ने, ते व्यवहार समन्त / / 36 / / (श्रीमद् राजचन्द्र) शिवाकांक्षी - ब्र. हेमचन्द जैन 'हेम' (भोपाल)