________________ पंचम चर्चा : धवलादि ग्रन्थों में क्षयोपशम भाव का स्वरूप 121 (ऊर्ध्वगमनस्वभाव से) लोकाग्र में जा विराजते हैं। यह सब शुद्धोपयोग का फल है, शुभोपयोग का नहीं। शुभोपयोग तो मात्र साधक अवस्था में सहचर निमित्त मात्र होता है, जो अशुभोपयोग से बचाये रखता है तथा शुद्धोपयोगरूप निर्विकल्प दशा की प्राप्ति में अनुकूल होता है। ‘कारणानुविधायीनि कार्याणि' अर्थात् कारण जैसा कार्य अथवा कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है - इस न्यायानुसार कारण की भिन्नता से कार्य की भिन्नता जिनागम में सर्वत्र मानी गयी है। अब यदि कोई जैनभासी विद्वान् निश्चय सम्यग्दर्शन को (औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक, तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन को) शुभोपयोग का पर्यायवाची सिद्ध करने लगे - मात्र इस कुतर्क के आधार पर कि 'जब मिथ्यात्व अशुभभाव है, अतः सम्यग्दर्शन शुभभाव स्वतःसिद्ध हो गया। साथ ही कोई यह भी कहे कि चौथे से सातवें गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन सराग होता है और बाद के, ऊपर के गुणस्थानों में वीतराग होता है, तो क्या इसे आगमनिष्ठ, निष्पक्ष, आगम-अध्यात्म-मर्मज्ञ विद्वान् ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेंगे? - यह तो मात्र उपचार कथन है। यह तो चारित्र गुण की सराग-वीतराग अवस्था का सम्यग्दर्शन पर आरोप करके कथन किया है। क्षायिक सम्यग्दर्शन तो सादि-अनन्तकाल तक एकरूप एकसा ही वर्तता है; अत: यदि सम्यग्दर्शन शुभोपयोग या सराग है तो क्या शुभोपयोग या राग के समान सम्यग्दर्शन को भी बन्ध का कारण माना जा सकता है? वस्तुतः सम्यग्दर्शन को शुभोपयोग सिद्ध करना तथा शुभोपयोग को बलात् क्षायोपशमिकभाव सिद्ध करना, उसे चारित्र का सराग मलिनांश नहीं मानना - यह एक प्रकार से श्रुत का अवर्णवाद ही है। ___ लगता है, आजकल विद्वान् आगम-निष्ठ कम और व्यक्ति-निष्ठ ज्यादा हो गये हैं, इसीलिए निष्पक्ष वस्तु-निष्ठ एवं आगम-निष्ठ चिन्तन-मनन से विमुख हो अपने मनमाने कपोल-कल्पित चिन्तनों को अधिक महत्त्व दे रहे हैं। निश्चित ही यह एक आत्मघाती कदम है। यह जिनागम का अवर्णवाद ही नहीं तो और क्या है? कहीं यह हमारी ऐतिहासिक भूल न बन जाए?