________________ 119 पंचम चर्चा : धवलादि ग्रन्थों में क्षयोपशम भाव का स्वरूप फलितार्थ - वस्तुतः मोहजनित औदयिकभाव ही बन्ध के कारण हैं, अन्य नहीं अर्थात् मोहजनित भाव (मिथ्यात्व एवं कषाय-परिणाम) ही औदयिक हैं, उसके बिना सब क्षायिकवत् है, क्योंकि बन्ध के पाँच प्रत्ययों में (मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा: बन्ध-हेतवः) मिथ्यादर्शन अर्थात् दर्शन-मोह के उदय से तथा अविरति-प्रमाद-कषाय अर्थात् इन तीन चारित्रमोह के उदय से होनेवाले औदयिक भाव हैं। योग तो सकषाय एवं निःकषाय दोनों अवस्थाओं में पाया जाता है; अत: वह आस्रव-बन्ध का सामान्य प्रत्यय है। (6) प्रवचनसार गाथा 165 (तात्पर्यवृत्ति) ___ किं च परमचैतन्यपरिणतिलक्षणपरमात्मतत्त्वभावनारूप धर्म्यध्यानशुक्लध्यानबलेन यथा जघन्यस्निग्धशक्तिस्थानीये क्षीणरागत्वे सति जघन्यरूक्षशक्तिस्थानीये क्षीणद्वेषत्वे च सति जलवालुकयोरिव जीवस्य बन्धो न भवति, तथा पुद्गलपरमाणोरपि जघन्यस्निग्धरूक्षशक्तिप्रस्तावे बन्धो न भवतीत्यभिप्रायः। अर्थात् परम चैतन्यपरिणतिलक्षण परमात्मतत्त्व की भावनारूप धर्म्यध्यान एवं शुक्लध्यान के बल से, जैसे जघन्य स्निग्ध-शक्ति के समान राग के क्षीण होने पर और जघन्य रूक्ष-शक्ति के समान द्वेष के क्षीण होने पर जल और रेत के समान जीव का बन्ध नहीं होता है; उसी प्रकार पुद्गल-परमाणु के भी जघन्य स्निग्धरूक्ष-शक्ति का प्रसंग होने पर बन्ध नहीं होता है - ऐसा अभिप्राय है। (7) द्रव्यसंग्रह गाथा 32 समस्तकर्मविध्वंसनसमर्थाखण्डै क प्रत्यक्षप्रतिभासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य अभेदनयेनानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतपरमात्मनो वा संबंधिनी या तु निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाऽशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादिकर्म येन भावेन, स भावबन्धो भण्यते। अर्थात् समस्त कर्म-बन्ध नष्ट करने में समर्थ, अखण्ड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय परम चैतन्य-विलास जिसका लक्षण है - ऐसे ज्ञानगुण से संबंधित अथवा अभेदनय से अनन्त-ज्ञानादि गुण के आधारभूत परमात्मा के साथ संबंधित