________________ 120 क्षयोपशम भाव चर्चा जो निर्मल अनुभूति, उससे विरुद्ध मिथ्यात्व-रागादि परिणतिरूप अथवा अशुद्ध चेतनभावस्वरूप जिस परिणाम से ज्ञानावरणादि कर्म बँधते हैं, वह परिणाम भावबन्ध कहलाता है। समीक्षा - भावबन्ध अर्थात् जीव का सविकार चैतन्य-परिणाम या भाव रूप मोह-क्षोभ परिणाम (मिथ्यात्व + कषाय) ही द्रव्यबन्ध (नवीन द्रव्यकर्म के बन्ध) का कारण होता है और यह दर्शनमोह एवं चारित्रमोह के मन्द-तीव्र उदयानुसार ही होता है। यद्यपि जब दोनों के मात्र देशघाति-स्पर्द्धक उदय में रहते हैं, तब श्रद्धा व चारित्र में उतने अंशों में समलता रहती है; तथापि सर्वघातिस्पर्द्धकों के अनुदय से उत्पन्न विमलता का नाश करने में वे समर्थ नहीं होते हैं। यद्यपि उस समलतारूप जघन्य अंश से स्वप्रकृति का बन्ध नहीं होता, तथापि ज्ञानावरणादि अन्य प्रकृतियों का यथायोग्य बन्ध तो होता ही है तथा जो निर्विकाररूप निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अंश प्रगट होता है, उससे कभी भी बन्ध नहीं होता। ___ एक विशेष बात जो ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि सम्यग्दर्शन की पर्याय तो पूरी ही होती है, आधी-अधूरी नहीं होती, चाहे चतुर्थ गुणस्थान में अविरत क्षायिक सम्यग्दर्शन हो या औपशमिक या क्षायोपशमिक हो, सम्यग्दर्शन तो मिथ्यापने से सर्वथा रहित, पूरा ही होता है। जबकि ज्ञान-चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त हो जाने पर भी अपूर्ण ही रहते हैं और एकदेश व सर्वदेशचारित्र के ग्रहणपूर्वक अर्थात् संयम के ग्रहणपूर्वक ही चारित्रमोह को प्रक्षीण करते हुए क्रमशः शुद्धि की वृद्धि को प्राप्त करते हुए यथाख्यातचारित्ररूप पूर्णता को उपलब्ध कर, वीतरागी छद्मस्थ (बारहवें गुणस्थानवर्ती) हो जाते हैं। तत्पश्चात् - मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणन्तरायक्षयाच्च केवलम्। __ (तत्त्वार्थसूत्र, 10/1) अर्थात् इस सूत्रानुसार मोह का क्षय होने के उपरान्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय - इन तीनों घातिकर्मों का एक साथ क्षय होते ही वे अनन्त ज्ञानदर्शन-सुख-वीर्य के धनी अरिहन्त परमात्मा सयोगी जिन हो जाते हैं, फिर बिना बुद्धिपूर्वक प्रयत्न के अघातिया कर्मों का क्षय होते ही अशरीरी सिद्ध परमात्मा बन